* प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल, अपनी कमी का अनुभव करना और उसे मिटाने का प्रयास करना यही मानव जीवन का आरम्भ है,किसी प्रकार कोई कमी शेष न रहजाये,अर्थात पूर्णता का अनुभव करना ,यही मानव जीवन की प्रकाष्ठा है,व्यक्ति अपनी दृष्टि से अपने में कमी का अनुभव करता है,तब सबसे बड़ा दुःख होता है,अत्यंत दुःखी होने का दुःख अपनी वर्तमान परीस्थिति से ऊपर उठजाता है,अर्थात उसे बदल देता है,उन्नतिशील मानव के लिऐ अपनी कमी का अनुभ करना सबसे पहले आवश्यक है, यदि कमी का अनुभव करके उसे मिटाने का प्रयत्न किया तो मानवता वही कही जासकती है,
मानव व्यक्ति नहीं बल्कि जीवनकी एक अवस्था है,जो उन्नति के लिऐ एक मात्र सर्वोत्म अवस्था है,यादि जीवन में ही पूर्णता न हो तो जीवन का मूल्य ही कुछ नहीं पूर्णता जीवन से ही मिल सकती है,इस मे लेसमात्र भी संदेह नही है,कमी रहन किसीको पसन्द नही है,अत: कमी का अंत करने के लिए ही जीवन मिलता है,मानव जीवन में वे सभी साधना विद्यमान हैं,जिनसे की जीवन में ही जीवन की पूर्णता का अनुभव हो सकता है, परंतु बाहरी रंगों से अपने को रंगने से छिप जाता है,व्याकुलता के प्रभाव से बाहरी रंग धुल जाते हैं,व्याकुलता सभी में है, प्रंतु वही उसे अनुभव कराता है,जो पूर्णता के लिए व्याकुल होता है,पूर्णता की निराशा व्याकुलता को दबा देती है, पर मिटा नहीं पाती दबी हुई व्यकुलता बार बार उत्पन्न होती है,अत: उसे पूर्ण कर दो व्याकुलता के सामने कोई भी हितैसी मित्र जीवन में नही है,तो उसका आदर हृदय में स्थान दो जीवन का अंग बनाओ व्याकुलता रहित जीवन व्यर्थ है,जिसको हम मृत्यु कहते हैं,वह नवीन जीवन को उत्पन्न करने के लिऐ विशेष अवस्था है,हम अपने जीवन की यही प्रस्थितियां देखे,कुछ इच्छाएं पूर्ण हो चुकी हैं, कुछ इच्छाओं को पूर्ण करने के प्रयास कर रहे हैं, और कुछ इच्छाएं जमा रहे है,इसके सिवाय वर्तमान जीवन कुछ नहीं है,जब जीवन की क्रिया शक्ति क्षीण हो जाती हैं, पर इच्छाएं शेष रह जाती हैं,तब प्रकृति क्रियाशक्ति प्रदान करने हेतु कुछ कल के लिए अपने में विलीन कर लेती है, और फिर नवीन जीवन देती है,जब तक इच्छा बनी रहती है,तबताक जीवन की भी अवस्थाएं बार- बार होती रहती हैं,जीवन का सदुपयोग करने पर इच्छाओं का अंत जीवन में ही हो जाता है, मृत्यु से नहीं।
मृत्यु तो सिर्फ सिर्फ प्राणीमात्र को नवीन जीवन जीने देने में समर्थ होती है,पूर्ण कर देने में नही पूर्णता का संबंध वर्तमान जीवन में ही है,पूर्णता का अभिलाषी वर्तमान जीवन में ही पूर्णताका अनुभव करता है,नामजप या मंत्र का जप शुभ कर्म ही हैं,जो अशुभ कर्मो को मिटने में समर्थ है, प्रेम पात्र से मिलने में तो स्मरन अर्थात् विरहकी व्याकुलता ही समर्थ है,बाज व्याकुलता पूर्ण हो जाती है, तब भाव-शक्ति, ज्ञान-शक्ति, में विलीन हो कर प्रेम पात्र को मिलाने में समर्थ होती है,ज्ञान से ही प्रेमपात्र का अनुभव होता है,क्योंकि न जानने की ही दूरी थी,क्रिया की पूर्णता यही है कि हमारी सभी क्रियांये प्रेम पात्र के नातेसे सभी के लिए हो,क्योंकि किसी व्यक्ति की संसार में भिन्नता भी है,अत: विश्व के साथ एकता करना आवश्यक है,ओर उस विश्व की सेवा प्रेम- पात्र के नाते से करनी है,विश्व के नाती से नहीं क्रिया पूर्ण होने पर विषयों का राग शेष भी रहता जिस कर्म से विषय बिराग न हो वह कर्म अधूरा है,अधूरा कर्म करने वाला कर्म से छूट नही सकता।