अंत:चेतना का विकास :-एम.एस.रावत

प्रदीप कुमार

श्रीनगर गढ़वाल-चेतना के समुन्द्र में काफ़ी गहराई तक अनेक चिंतन भरे पड़े हैं, इन्हे यतेंदरिया क्षमता भी कहा जाता है, जिस प्रकार बैभव का धनी अपने ठाटबाट बना सकता है, और दूसरों को भी सहायता देकर निहाल कर सकता है,उसी तरह चेतना का योगाभ्या और तप, साधना द्वारा इतना पोशा जा सकता हैकि साधक हर किसी चमत्कृत किया जा सकता है, ताकि अनेकों को विशेष लाभ मिलसकने के द्वार खुल सके, स्वयं सिद्ध पुरुषों जैसा जीवन जी सके यह सफलता उपासना विज्ञान के अवलम्बन से उसे श्रेष्ठ मार्ग दर्शन एवं दैवी संरक्षण में किये जाने पर ही मिलती है,चेतनाके उदारीकर्न की इस प्रवृति हेतु प्रारम्भ से ही उच्चस्तर की साधनाओ के लिये किसी को नहीं कहाँ जाना चाहिये,न किसी को उसतरह का दुस्साहस ही करना चाहिये, यही व्यवहारिक है, संजीवनी विद्यावाले पक्ष को जीवन मे उतार कर यदि अपने को सुविकसित कर लिया जाता है तो अंतराल की गहराई में छुपे पंचकोषों षटचक्रो अत्यकाओ, गुच्छीकों को उभारने वाली और अनेक रिद्धिसिधी के सामने उपस्थित करने वाली बिभूतियों का अर्जन संभव भी हो जाता है, सरल भी,
प्रत्यक्ष शरीर की व्यवहारिक साधना का प्रसंग चलने पर मानवीय सत्ता के तीन पक्ष दृष्टगोचर होते है, जैसे केले के पत्ते के अंदर परत दर परत होती है, वैसे ही शरीर में क्रिया तंत्र रूपी काय कलेवर विचार तंत्र रूपी नमः छेत्र एवं भाव तंत्र रूपी अंत:करण में इन तीनों की सत्ता समाई हुई है,इन्हे आध्यात्मिक शब्दावली में क्रम:स्थूल शरीर सुक्षम शरीर और कारण शरीर कहा गया है, तीनों के मिलने से समर्ग मनुष्य बनता है, उन्हें सुविकसित जो अनुशासन अपनाना पड़ता है,, उसे आधात्म शास्त्र तत्व दर्शन या उपासना विज्ञान कहते हैं, हम प्राय: स्थूलकाया से ही परिचित हैं,उसी को सब कुछ मानते हैं,इसी लिये सोचते हैं, करते रहते हैं, अपनी समग्रता उसी में समाहित देखते हैं, उसी के लिये सोचते हैं, और उसी परिधि की स्वार्थ साधना के निमित्त होता है, वासनाओं की इसी छेत्र में धुंध छाई रहती है,
शरीर का ही एक भाग मन है, उसे ग्यारहवी इंद्री कहा जाता है, इन्द्रियां अपने भोग तलाशती रहती हैं, मन का विचार तंत्र लिप्सl प्राप्त हो कर लोभ, मोह, और अहंता की पूर्ति हेतु ताने-वाने बुनता रहता है, समुची शक्ति इसी में समाप्त हो जाती है, वह एक भी काम बन नहीं सकता जिसके सृष्टा ने अपनी अपनी इस सर्वोपरि कला कृत को धरोहर के रूप में सुपुर्द किया है,आत्म परिष्कार बिना न पुण्य परामर्श साधना है, न की लौकिक सिद्धियों एवं आत्मीक त्रिद्धियों का द्वार खुलता है, विचार शक्ति का जितना गुणगान किया जाय उतना ही काम है, यही हमारे अंग प्रतिअंगों को कठपुतलयों की तरह नचता है, उसे ही साधना के माध्यम से पॉजिटिव व शशक्त बनाया जा सकता है, मनोबल के आधार पर ही व्यक्ति प्रतिभावान बनते हैं, और अपनी प्रखरता प्रमाणित करने के आधार पर असंख्यकों का कल्याण करते रहने का काम करते हैं।