प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल प्रेम अपने प्रेमास्पद से किसी प्रकार का सुख नहीं चाहता वह तो सदा उनके सुख में ही सुखी रहता है,उनको रस देने में ही उसे रस मिलता है, यदि प्रमात्मा से प्रेम कि मांग बढ़ जाय तो उनसे प्रेम के शिवाय और कुछ मत चाहो, वैतो देने को तैयार हैं,फिर अडचन क्या है। क्या वास्तव में हम उनसे उनका प्यार चाहते हैं या कुछ और सच तो ये है कि हम उनको याद भी इसलिये करते हैं कि वह हमारी इच्छाओ को पूरी करते रहे, हम संसार से जो आशा करते हैं, वह संसार के साथ नहीं करते हैं कि हम संसार से काम लेना चाहते हैं, लेकिन खुद संसार के काम आने से अपने को बचाते हैं। हम भगवान को अपना बनाना चाहते हैं, किन्तु स्वयं उनका होने से डरते हैं। इन्ही कारणों से जीवन में अनेक उलझने उतपन्न होजाती हैं,शिक्षा जीवन में सौंदर्य प्रदान करती है, शिक्षित व्यक्ति की सदैव ही समाज में रहती है।
शिक्षा एक प्रकार की सामर्थ है, किन्तु शिक्षा के साथ दीक्षा अत्यंत आवश्यक है,अशिक्षित व्यक्ति से समाज को उतनी क्षति नहीं होती जितनी शिक्षित से होती है,एक शिक्षित व्यक्ति की शिक्षा का सदुपयोग कर सकता है, प्रभु के मंगल मय विधान से हमें सेवा का सामर्थ्य और उदारता की प्रस्थति मिलती है, आज जितनी चेतना सामर्थ्य और भावना हमारे पास है, यदि आगे नहीं बढ़े तो मिला हुआ अवसर भी हाथ से निकल जायेगा, इसलिये जैसी प्रस्थति हो उसी के अनुसार आगे बढ़े तो वही से रास्ता मिल जायेगा, बस शर्त वही है, आगे बढे संयोग निश्चित नहीं है, बियोग निश्चित है,मनुष्य मिले हुए का सदुपयोग या दुरूपयोग करने में स्वतंत्र है, परन्तु उसके फल भोगने में प्रतंत्र हैं, जिसको हम चाहते हैं, वह हमें नहीं चाहता यहीं दुःख है,चार जगह संसारिक बाते मत करो,1)मंदिर,2)शमशान,3)रोगी,4)महात्माओं के पास चार महा वाक्य
1)मेरा कुछ नहीं, 2)मुझे कुछ नहीं चाहिये,3) सबकुछ प्रभु का है,4)केवल प्रभू मेरे हैं, शरीर के लिये परिवारको, परिवार के लिये समाज को समाज के लिये राष्ट्र को हानि मत पहुचाओ,ममता रहित शरीर की सेवा करने से शरीर का हित और अपना कल्याण है, मृत्यु का दार उन्ही को होता है, जिन्होंने वर्तमान का दुरपयोग किया है, यदि अनुकूलता का सुख न प्रतीत होता है तो प्रतीकत्यता का दुःख नहीं हो सकता है, उस सुख का त्याग करदो जो किसीके लिये दुःख हो, शांति यदि अपने में नहीं है तो कही नहीं अशुभ संकल्पों को टैग कर शुभ संकल्पों की पूर्ति स्वतः होने लगती है, अपनी कमी को अनुभव करना और उसे मिटाने का प्रयास करना जीवन की शुरुवात है, ईश्वर का भक्त अक्रोधी होता है, वह सारे जगत में ईश्वर को ही देखता है, फिर किसपर क्रोध करे? संसार को पसंद करने से चार दुःख मिलते हैं,1)अशांति, 2)अभाव, 3)प्राधिनता,4)निरशता, ईश्वर को पसंद करने से चार सुख मिलते हैं,1)शांति,2)स्वभाव,3) स्वाधीनता,4)प्रेम
उपरोक्त बातो को ही प्रभु के प्रेम का आधान मानकर जीवन के कार्य करैंगे तो दुखो का आभास नहीं होगा।