प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल। शिक्षक दिवस पर गुरु का महत्व के विषय में राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय सम्मानाेपाधियों से अलंकृत अखिलेश चंद्र चमोला हिंदी के अध्यापक राष्ट्रीय इंटर कॉलेज सुमाडी़ विकासखंड खिरसू जनपद पौड़ी गढ़वाल ने प्रकाश डाला जीवन में गुरु का विशेष महत्व होता है।
गुरु हमारे अवगुणों को दूर करता है।गुरू के मार्ग दर्शन के बिना हम आदर्श जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।गुरू की कृपा न मिलने से समूचा जीवन दुःखमय निराश मय हो जाता है।गुरु ही इस तरह का परम तत्व है जो हमें अन्धकार से प्रकाश ले जाता है।हमारे मन के सारे तामसिक व आसुरी शक्तियों को दूर कर देता है। जीवन में माता पिता से अधिक महत्व गुरु का होता है।माता पिता जन्म देते हैं।गुरु से ही सच्चा मार्ग मिलता है।इस कारण गुरु को जनक कहा गया है।शास्त्रों में गुरु के सन्दर्भ में कहा गया है–गुरु ही ब्रह्मा है,गुरू ही बिष्णु है,गुरु ही शंकर है।गुरु ही साक्षत परब्रह्म है।ऐसे गुरु को मेरा प्रणाम है।
गुरु दो शब्दों के योग से बना हुआ है। “गु” और “रु” ,
गु का अर्थ होता है–अंधकार ,रु का अर्थ होता है -प्रकाश,अज्ञानता को मिटाने वाला,प्रकाश रुपी परम तत्व को गुरु कहा गया है।इसे हम इस तरह से भी स्पष्ट कर सकते हैं—
गु अन्धेरा जानिये,
रु कहिए प्रकाश,
मिटै अज्ञानतम ज्ञान से,
गुरु नाम है तास।
गुरु का जीवन में विशेष महत्व है । गुरु ही हमारे दुर्गुणों को हटाने की क्षमता रखता है।जिस प्रकार हम अंधेरे से किसी वस्तु को पहचान नहीं पाते हैं,उसी प्रकार बिना गुरु के जीवन में अन्धकार छाया हुआ रहता है। बिना गुरु के जीवन का कोई महत्व नहीं है।
गुरु का ध्यान करने मात्र से मन औलोकिक प्रसन्नता आ जाती है।धैर्य और शान्ति का भाव जाग्रत हो जाता है।गुरु के सम्पूर्ण स्वरूप में परम तत्व का रुप समाया हुआ रहता है।गुरु का आभा मंडल तेजोमय प्रकाश से चमकता हुआ दिखाई देता है। गुरु की प्रकाश मय किरणों से ही शिष्य का कल्याण होता है। सबसे बड़ा मन्दिर व तीर्थ गुरू ही है।सच्चे शिष्य के लिए गुरु का निवास स्थल ही तीर्थ है। गुरु के चरणों का चरणामृत ही गंगा जल है।इसी आधार पर सन्त समाज सुधारक कबीर दास ने कहा –
तीरथ गये तो एक पल, संत मिले चार,सद्गुरु मिले तो अन्नत फल,कहे कबीर बिचार।
सीखने की प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है। गुरु के द्वारा ही हम किसी विषय को अच्छी तरह से सीख सकते हैं।अलग अलग विषयों का ज्ञान सीखने के लिए अलग अलग मार्ग दर्शकों की आवश्यक्ता होती है।ड्राइवर बनने के लिए ड्राइवर गुरू,सिलाई सीखने के लिए सिलाई गुरू,डाक्टर बनने के लिए डाक्टर गुरु,शिक्षक बनने के लिए शिक्षक गुरू की जरूरत होती है। बिना गुरु के हम कितना भी प्रयास करें ,लेकिन किसी भी कला में सिद्धहस्त सफलता नहीं प्राप्त कर सकते।
गुरू हमेशा अपने शिष्यों को आगे देखना चाहता है।गुरु कुम्हार के समान है।शिष्य मिट्टी के बर्तन के समान ।जैसे कुम्हार घडे या बर्तन को सुन्दर व सही आकार प्रदान करता है।उसे प्रगति की सही दिशा देता है।उसी तरह से गुरू भी शिष्य का निर्माण करता है।गुरु का अनुशासन, कठोरता या डांट उसी प्रकार से हितकारी है,जैसे कुम्हार घडे की बिकृति को दूर करने के लिए वाहर से ठोकता है,पीटता है, किन्तु भीतर से दूसरे हाथ का सहारा देकर रखता है।इस प्रकार से गुरू शिष्य का निर्माण करता है।
गुरु और शिष्य में बड़ा ही घनिष्ठ संबंध है,शास्त्रों में कहा गया है।
दूध के बिना गाय ,फूल के बिना लता,चरित्र के बिना पति,कमल के बिना जल,शांति के बिना बिद्या और लोगों के बिना नगर शोभा नहीं देते,वैसे ही गुरु के बिना शिष्य शोभा नहीं देता है।सच्चे गुरु के बिना शिष्य शोभा नही देता है।
गुरु के मिलते ही हृदय ज्ञान के प्रकाश से भर जाता है।गुरू को कभी भी नहीं भूलना चाहिए। भगवान की कृपा से ही सद्गुरु की प्राप्ति होती है।
गुरू ही देश के भविष्य निर्माता ओं का निर्माण करता है।विद्यार्थियों के मन मस्तिष्क को ज्ञान रूपी प्रकाश पुंज से अभिसिन्चित करता है।आदर्श राष्ट्र के निर्माण में गुरु की सबसे विशिष्ट भूमिका रहती है।गुरू मनोवैज्ञानिक पहलू को अपनाकर अपने शिष्यों को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है।गुरु अपने आप को एक कृषक के रूप में देखता है।विद्यार्थियों का मूल्यांकन फसल के रुप में करता है।लहलहाती फसल सभी को अच्छी लगती है,इसकी सुन्दरता सभी को अपनी ओर आकर्षित करती है।इसी प्रकार ज्ञान गंगा से युक्त शिष्य समाज और राष्ट्र में अपनी सुगंध फैला देते हैं।(लेखक -कला निष्णात स्वर्ण पदक के साथ राज्य के उत्कृष्ट शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित होने के साथ-साथ 100 से अधिक राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय सम्मानोपाधियों से अंलकृत हैं)।