“भक्ति का आधार है भाव”–एम.एस.रावत

 

प्रदीप कुमार

श्रीनगर गढ़वाल गणित के शून्य का आधार होता है, विन्दु पर आध्यात्म होता है, इसी लिये, निर विकार होता है, विन्दु जिस संख्या के दाहिने होता है, उसका मूल्य बढ़ जाता है,पर शून्य जिस साधक के चित कि बृति बनजाता है, वह महत्व का बोध जीने लग जाता है, यह निर्गुण,निराकार, निर्विकार, होने के कारण ही स्वज्ञान को धारण कर्ता है, यह सर्वोच्च सत्ता का आधार भी है, और पर्याय भी जिस गणित में संख्या का बोध तो नौ ही होता है, किन्तु शून्य कि चरण परनिति का आभास होता है, उसी प्रकार भूमा के पूर्व कि स्थति साधक की भूमिका होती है,और उसके बाद वह सिद्धावस्थ में प्रवेश कर जाता है,भूमा के अध्यात्म की शून्यावस्था है, इसीलिये वहप्रमात्मा
भी है, जिस प्रकार गंगाका अस्तित्व गंगासागर तक ही है, बादमे तो केवल समुन्द्र है, उसीप्रकार संसार तकही साधक की साधना का गम्यता है, उसके बाद तो प्रम शून्य है, गंगाने कभी लोट कर समुन्द्र की व्याख्या नहीं की उसी प्रकार भूमामें विषर्जन के बाद की गाथा का नाम है, मौन, मौन शून्य की आत्मा है, और शुन्यवस्था उसका आकार अर्थात उसको अस्थित्व के साधना काल में होनेवाला वोध इसलिये प्रमात्मा केवल आत्मा के होने वाला बोध ही है, कोई संज्ञा नहीं, क्रिया नहीं, विशेषण नहीं, भूमा संज्ञा तबतक ही है,जबतक वह साधक का गंतव्या है, उसके बाद तो परमचेतना का लहराता सागर है, जहाँ अस्तित्व की गम्यता नहीं है, गणित में शून्य जब संख्या के बाद होता है, तब संख्या का अस्तित्व भी सामर्थ्य विहीन होजाता है, इन्द्रियों के गुणों में अनुरक्त मन को ज़ब विवेक विभाक्ति करने की चेष्ठा कर्ता है, उसके समय भक्ति का उरेदक संतुलन का सृजन करता है, भक्ति का आधार है,भावऔर भाव का आधार है, आकार, आकार भी उसी प्रकार गणित का आधार है, जैसे माना कि धन एक है, बिना इस काल्पनिक मान्यता के नतो गणित में गति है,और न अध्यात्म में परमात्मा आस्तिकों का विश्वास है, प्रकृतिबादी कि प्रश्नबाचक कल्पना लेकिन इस कल्पना के अभाव से सृष्ठी निरर्थक है,और चिंतन शब्द शून्य प्रकृति से प्राप्त पंचत्वतों में प्रकृति का अंश है, और उसमें निवास करने वाले अदृश्य आत्मा में प्रमात्मा का वाश,
प्रकृति जिस सृष्टि कि सृष्टि है, वह महत्त्व का शून्य है, ज्यामित का बिंदु कोणों का आधार है, शून्य गणित कि संख्या का और आकाश प्रमात्मा की इसलिये प्रमात्मा हो या अनात्मा यह आस्था का विषय है, प्रमात्मा का स्वरूप परम आनंदमय है, वह प्रेम से प्रकट होने वाला है, साथ ही साधना के कर्तव्य के अधीन नहीं है, जो ह्रदय में आनंदमय, प्रेममय, चैतन्यमय विरजमान है, वही सबका ईश्वर है, ईश्वर ने हमारे शरीर की संरचना उसमें चेतना डे कर उसे क्रियाशील बनाया यह उनकी हमारे प्रति परम अनुराग समझना चाहिये, इसी बात को समझने के लिये मनुष्य बुद्धि दी है, इसका सदुपयोग ही सर्वोपरि होगा।