*” प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल भारतीय चिंतन एवं दर्शन जो एक सतत प्रवाह है,वह केवल परमात्मा को ही पाने का प्रयत्न नहीं कर्ता वरन जीवन की उलझनो का भी समाधान है, समाज में व्याप्त भीषण असमानता, घृणा परस्पर द्वेष, भीषण गरीबी, दुःख तथा अज्ञान आदि समस्याओं का हल हम अध्यात्म से समग्र दृष्टि पाकर ही निकाल सकते हैं, वास्तव में यह सारी समस्याएँ मनुष्य की प्रवृति निज स्वार्थ की होने के कारण ही हैं, व्यक्ति जब थोड़ा भी आध्यात्मिक होता हैं तो उसका स्व बढ़ कर विराट की ओर बढ़ जाता हैं,और तब उसे सब अपने लगने लग जाते हैं, उनके दुःख अपने लगने लगते हैं,गीता मे कहा गया है कि आध्यात्मिक व्यक्ति ही सच्चे मन से समर्पण पूर्वक आके दुखों को कम करने के लिये कोई भी कार्य, कोई भी त्याग कर सकता है, उसका जीवन ही सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय के कामों में लगजाता है ऐसे व्यक्तियों से पृथिवी सनाथ हो जाती है,
उनकी कामना ईश्वर से केवल यही होती है कि पीड़ितों कि पीड़ा कैसे समाप्त हो,महाभारत में कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति समाज पर सकात्मक प्रभाव डाल कर दुखों को सहने एवं विकट परिस्थितियों से लड़ने की प्रेरणा देते हैं, जो उसे उत्तम कर्मो द्वारा सुख- समृद्ध का मार्ग बतलातें हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति सात्विक ऊर्जा तथा चेतना का केंद्र हो जाता है, जो अपने संपर्क में आने वाले को ऊर्जावान एवं चेतनावान बना देता है, उसका संपर्क क्षेत्र प्रकाश एवं आनंद से पूर्ण रहता है, गीता के अनुसार “स्वभाओं अध्यात्म उच्चते”अर्थात जगत का स्थूल से परे जो मूल स्वभाव है, उसके बारे में जानना उसे पाना यही आध्यत्मिक प्रक्रिया है, यह जो संसार दिखाई पड़ रहा है, यही सत्य है कि इसकी वास्तविकता कुछ और है, ऋषियों ने यह प्रारम्भ से जानलिया था, कि इस जगतकी उत्तप्ति किसी किसी विस्फोट से न हो कर किसी कर्ताद्वारा, करण एवं उपादान द्वारा हुई है, यहाँ परमात्मा ही कर्ता हुआ अनुभव किया गया है, जो कि अपनी परा शक्ति द्वारा (प्राणशक्ति) और अपराशक्ति द्वार( पंच महाभूत की तनमात्रायें)से अपनी इच्छा से प्रकट करता है, और पन:अपने में लीन कार लेता है,इस सृष्टि का उद्देश्य एवं संचालन रहस्य वह स्वयं जानता है, इसी प्रकार ऋषियों ने यह भी प्रारम्भ में ही अनुभव किया था कि जीवन केवल देह मात्र नहीं है, वह देह से पृथक है, देह उसके कार्य करने एवं भोग करने का कारण या साधन मात्र माना गया है।
गीता के अनुसार जीवन अमर,चेतन अविनाशी है,तथा वह कपड़ों की तरह देह बदलता रहता है, इस प्रकार कुछ ऋषियों ने तीन अविनाशी तत्व- प्रमात्मा, जीव,और प्रकृति तथा कुछ ने दो चेतन और अचेतन(प्रकृति)और ने एकातत्व अद्वेत प्रमात्मा ही प्रतिपादित किया है, इसी प्रकार कुछ ऋषियों ने परमात्मा को पाने का ज्ञान मार्ग तथा अन्य ने कर्म मार्ग या भक्ति मार्ग बताया है, परन्तु अनुभव के आधार पर ऋषियों ने ही पाया कि कोई एक मार्ग अपनाने पर अन्य दो स्वयं ही सहयोग हेतु प्रकट हो जाते हैं।