*”कर्म ही जीवन है”*
प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल भारतीय मानस आदिकाल से कर्म और कर्मफल को मानता रहा है,इस लिए उसे ईश्वर से या अन्य किसी से कोई शिकायत नही रहती है,वह वर्तमान शरीर को नए सिरे से शुभ कर्म करने का दुर्लभ अवसर मानता रहा है,(बड़े भाग मनुष्य तन पायो,सुर दुर्लभ सदग्रंथन गवायो)इस प्रकार जो दर्शन मनुष्य आदि योनियों को कर्मफल का परिणाम मानता है,वह कर्म की अवहेलना कैसे कर सकता है,ईशोपनिषद के अनुसार “कर्मनेवंह कर्माणी जिजी विश्ववत्नम समा” अर्थात मनुष्य को कर्म करते हुऐ ही जीने की इच्छा करनी चाहिए ,क्रम हीन मनुष्य के जीवन की कल्पना ही की की जा सकती है,इसी प्रकार गीता, स्मृतियों से कर्मो की शिक्षा देती है, यहां तक कि भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कि नियमित कर्म न करने से शरीर को या मन को शांति नही मिलती “अकृते नियतक्षुत”अर्थात अकर्मन्य व्यक्ति निश्चित ही भूख से पीड़ित होगा, (चाणक्य) तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं,मैं इस श्रृष्टि को चलाने के लिए अहनिर्यत: कर्म करता हूं,अन्यथा यह श्रृष्टि लोप हो जाए,ज्ञानी पुरुष को विदुर या जनक की की तरह लोक कल्याण के लिऐ एवम् अन्य पुरषों ( मनुष्यों को)प्रेरणा देने हेतु कर्म करते रहना चाहिए,वे आगे बड़ी रोचक तत्थय की ओर ध्यान दिलाते हैं, कि जीव कैसी भी क्षण बिना काम के नही रहता है,वह शारीरिक रूप से या मानसिक रूप से ऐच्छिक और अनैछिक काम हर समय करता ही रहता है,भारतीय मनीषा ने इस पीआर काफी चिंतन किया है, (विचार) निदनीय और अकरमणीय कर्म अर्थात जिससे स्वयं को एवम् समाज को और राष्ट्र को पीड़ा,हानि पहुचानी है,वे तो बिल्कुल ही वर्जित है,दंडनीय है,परंतु करणीय कर्म भी दो भागों में बांटे गए हैं,प्रथम वे शुभ कर्म हैं, जो किसी फल की आशा के किए जाते हैं, परन्तु मनुष्य को बंधन में डाल देते हैं,दूसरे वे शुभ कर्म हैं जो अहंकार रहित हो बिना किसी फालकी कामना से कर्तव्य समझ कर लिए जाते हैं,येसे कर्मो से मनुष्य बंधन में नही पड़ता (बंधन मुक्त जीवन) है।
इस प्रकार मनुष्य की अपने कर्तव्य पुत्र रूप में ,पिता रूप में या सामाजिक पदाधिकारी के रुप में निष्ठा पूर्वक निष्ठा भाव से करने की ग्रंथो में कहा गया है,यहां तक की कर्तव्य निर्वाह में प्राण त्याग भी करने ही तो इसकी भी अनुशंसा प्रशंसा की गई है,स्वयं ईश्वर ने राम और कृष्ण का अवतार लेकर अनेक अपमान या कष्ट कर भी पूरा जीवन कर्मठता पूर्वक कर्तव्यों का पालन कर मनुष्य के सामने उदाहरण प्रस्तुत किए हैं,इस प्रकार भारतीय दर्शन ,सत्य की प्राप्ति के साथ साथ उत्तम कार्यों का दर्शन है,समृद्धि दर्शन है,जो समाज के हर वर्ग को सत्यनिष्ठा,कर्मनिष्ठा, एवम् त्यागनिष्ठा,में मजबूत बनाता है,आवश्यकता उसकी सही दिशा में श्रद्धापूर्वक अपने जीवन में उतारने की है, हम सभी शुभ कर्मों में प्रवृत्त हो।