*मामेकमं शरणं ब्रज–एम.एस.रावत

 

प्रदीप कुमार

श्रीनगर गढ़वाल भागवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रियसखा अर्जुन को ‘सर्वगुह्यतम’ उपदेश देते हुए कहा है, सर्वधर्मiन परित्यज़ मामेकं शरणंब्रज, अहंत्व सर्वयापेभ्यो मोक्ष पिश्या मि भा शुच:(सब धर्मों अथवा आश्रयों का त्याग क़र मुझएक की शरण में आजा, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त क़र दूंगा, शोक मत क़र)शरण का अर्थ है,आश्रय और रक्षिता(शरणं गृह रक्षितो:)जिस प्रकार तरंग का आश्रय जलाशय और स्वर्णआभूष का आश्रय स्वर्ण है, उसी प्रकार करुणाव रुनालय श्रीहरि ही जीवात्मा के एकमात्र आश्रय एवं रक्षक है,’आगति का अर्थ है, आना या लोटना, अत:’भगवत- शरणागती’ से तातपर्य भवदभिन्न समस्त जगत परपंच से पूर्ण विरत हो अशरण-शरण प्रभु के श्रीचरणन्दविंदों में स्वयं को सर्वात्मना समर्पण क़र देना है, शरीर एवं आत्मा के साथ मन एवं बुद्धि भी प्रभु को अर्पण क़र देने से ही भगवतप्राप्ति सम्भव है, इसी को प्रयति ‘अथवा आत्मा निवेदन भी कहा जाता है, प्रभु के आश्रय से निराश्रय बन क़र जाना ही अनन्य श्रर्णागति है, मनुष्य द्वारा दूसरे आश्रयों का परित्याग करते ही भगवान का आश्रय दृढ हो जाता है, और भगवतकृपा का बोध स्वत: ही होने लगता है,यहीं प्रभु की अनन्य शरणागति है,
श्रनागत के लिए चार बातों का होना आवश्यक है, सम्पूर्ण कार्यों को प्रभु को अर्पित क़र देना, स्वयं को प्रभु को अर्पित क़र देना, समता एवं संभव (तितिक्षा)का आश्रय लेकर जगत का संबंध विच्छेदन क़र लेना तथा भगवान से अटल सम्बन्ध स्थापित क़र लेना परन्तु कर्म का परित्याग क़र निश्चिष्ट हो जाना शरणगती नहीं है, अपनी समस्त क्रियाओ को प्रभु को समर्पित क़र देना ही श्रणगति है, प्रतेक कर्म के मुलमें भगवतपरेंर्ना एवं प्रतेक शुभाशुभ को भगवान का दयापूर्ण विधान मान क़र उसी में संतुष्ट रहना चाहिये,तथा निरंतर प्रभु का स्मरणकरते हुए मंत्रवत निष्काम कार्य करना ही वस्तुतः श्रणागति का भाव है,साधन अभ्यास और परिपकस्था की दृष्टि से श्रणगति तीन प्रकार की होती है,
1) साधन सर्णागती में मैं प्रभु का हूँ, 2) अभ्यास श्रणगति के अंतर्गत प्रभु मेरे हैं,
3) पाक श्रणगति में प्रभु मित्र, मेरा कोई अस्तित्व नहीं है, प्रभु निष्ठा होती है।