असत से सत की ओर–एम.एस.रावत*

प्रदीप कुमार

श्रीनगर गढ़वाल ,मानव जन्म लेता है तो वह सत्य स्वरुप होता है, कारण अपने पराये का उसे ज्ञान नहीं होता, यह संसार को भ्र्म है, क्षणभगुर, असत्य है, सत्य तो सिर्फ जन्म मृत्यु है, संसार सत्य नहीं है, ओर इस असत्य स्वरुप में संसार में बढ़ता शिशु ज्यों ज्यों संसार ज्ञान करता है, तो वह भटक जाता है, शनै: शनै:सत्यरूप असत्यरूप की ओर बढ़ता रहता है,और पुन: पुन:जन्म लेकर पिछले पापों को अपनी निर्मल आत्मा से धोना चाहता है, किन्तु मुख्य उद्देश्यों से भटक जाता है, और उस जीवन में पिछले पाप रूपी धब्बो को हटाने के चक्क्र में नये नये धब्बे लगा बैठता है।
आत्म प्रकास पुंज है, एक ज्योति है, हमें बचाना है, इन असत्य की ओसधियों से असत्य का कोई एक रूप नहीं है,न जाने कितने कितने रूपों में यह बार बार इस ज्योति पुंज को ढकने आजाता है। लोभ,मोह,काम,क्रधऔर इससे भी बड़ा असत्य रूप असत्य भाषण, एक दिन में मानव जाने अनजाने कितना असत्य बोल जाता है,ज़ब वाणी की असत्यता अधिक बढ़ जाती है,तो कर्म स्वमेव असत्य होते चले जाते हैं, फिर आचरण असत्य होता जाता है, और असत्यता की अधिकता यातो उसे दलदल में धकेलती है या फिर भंवर में? किये गये कुकृतियों को पुण्य द्वारा समाप्त किया जा सकता है, इस धारणा ने मानव को और कुमार्गी बना दिया है, स्मरण योग्य है कि कुकर्म का फल निश्चय है,और सुकर्म का भी किन्तु अलग अलग ठीक से तराजू की तुलना के समान अलग अलग पापासे स्वयं को उबारने के लिये प्रभु के भजन के साथ साथ प्रयाश्चित करने व भविष्य वह कृत्य पुन: न दोहराने का संकल्प लेना अति आवश्यक है।
जानबूझ कर किया गया पाप कर्म बिना पर्याश्चित व कभी न करने के दृढ संकल्प के अभाव में प्रभु का भजन उबार न सकेगा, ठीक उसी तरह जिसतरह मजबूत वैध लगातार उससे भी प्रबल जल के वेग को रोकने में सामर्थ नहीं होगा, जीवन एक तपस्या है, गृहस्थ हो या संत का सत्यपथ चलते हुये, सत्य बचन, सत्य कृत के साथ साथ आचरण भी सत्यत्ता से करे, इसमें पग पग पर कांटे मिलते हैँ, ईमानदारी के साथ धनोर्पर्जन व अल्पधन में गृहस्ती का निभाव एक साधक कि कठिन साधना से कमतर नहीं है, दन के अभाव में परिवार के भरण पोषण, आगंतुक कि सेवा एक ईमानदार व्यक्ति के लिये, आजके समय में बहुत कठिन है, दृढ़ता के समक्ष विकार नहीं टिकते, मानव जो इस भ्र्म जाल में फंसा है, हर क्षण इच्छाओ व आकांक्षा ओं कि पूर्ति में संलग्न येन कें प्रकारेन वह इसी धर्रे पर चलता हुआ, सत से असत कि और बढ़ रहा है, आवश्यकता है, उसे अपने सही स्वरुप को पहचानने की स्वयं चेतना शक्ति आत्मा की जानने, समझने की, उसके पश्चात लक्ष्य के स्मरण की लक्ष्य मुक्ति का मोक्ष प्राप्ति का स्वयं का सही स्वरुप समझाना,समझना, लक्ष्य का समझना या स्मरण आना ही असत से सत की और जाने मार्ग का शुभारम्भ हो गया है।