प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल। सेब में कालर रौट या तना सड़न रोग को स्तंभ मूल संधि विगलन रोग भी कहते हैं। यह रोग मुख्यतः मृदा जनित फफूंद फाइटोफ्थोरा कैक्टोरम के कारण होता है ।
रोग का संक्रमण आरम्भ में पौधे के जमीन के साथ लगे हुए भाग में तने की छाल पर होता है रोगग्रस्त भाग पर भूरे खुरदरे धब्बे दिखाई देते हैं तने की छाल सूख कर भूरे कैंकर के रूप में दिखाई देती है। मिट्टी के पास पौधे का कॉलर क्षेत्र (साइन एवं रूट स्टाक की यूनियन वाला क्षेत्र) के ऊतक (टिशू ) फगस के बीजाणुओ (स्पोर) के आक्रमण के कारण मरने लगते हैं ( नेक्रोसिस) तथा छाल के अन्दर का भाग नारंगी से लाल कत्थई व भूरे रंग का हो जाता है , अधिक प्रकोप से रोग तने के ऊपर व नीचे जड़ों की दिशाओं में फैलता है। यदि समय पर उपचार नहीं हुआ तो बाद में फ्लोएम कैम्बियम व जाइलम नम होकर सडने लगते हैं, संवहनी उत्तकों के क्षय के कारण पौधे के सभी भागों तक पोषक तत्वों की आपूर्ति नहीं हो पाती जिस कारण पौधे में सामान्य कमी के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। रोग ग्रसित पौधे की पत्तियां पीली व उनकी शिरायें तथा किनारे लाल रंग के हो जाते हैं।रोग के कारण पौधे में नई बृद्धि कम होती है और पौधे का विकास रुक जाता है, अगर रोग तने के चारों तरफ फैल जाए तो पौधा मर जाता है। दश बर्ष से अधिक आयु के पौधों में यह रोग अधिक देखने को मिलता है छोटे पौधों में भी इसका संक्रमण पाया जाता है।
रोग फैलने के कारण – पिछले बर्ष मिट्टी में गिरी संक्रमित पत्तियों, फलों एवं पौधे के अवशेषों से यह रोग पनपता है। रोग के रोगाणु मिट्टी में जीवित रहते हैं तथा मिट्टी का तापमान बढ़ने एवं मिटटी में पानी की अधिकता में यह रोग फैलता है। पौधों के जमीन के पास वाले भाग में धूप का न लगना एवं तने के पास जल जमाव या पानी का नियमित रूप से भरा होना इस रोग के फैलने के प्रमुख कारण है। अम्लीय मिट्टी (6.5 से कम पीएच मान वाली मृदा) में यह रोग अधिक देखने को मिलता है।
प्रबंधन- रोग के होने के बाद इससे निपटने की तुलना में इसकी रोकथाम कर लेना कहीं ज्यादा आसान है।
रोग प्रतिरोधी किस्मों के मूलवृंतों जैसे एम.-2, एम.-4, एम.-9, एम.एम-26, एम.एम.-114, एम.एम.-115, का प्रयोग करना चाहिए।
तना सड़न रोग की रोकथाम के लिए बगीचों में पानी की निकासी का उचित प्रबंधन करना चाहिए। यूनियन के चारों ओर की मिट्टी हटाकर धूप में खुला छोड़ दें।
ग्राफ्ट यूनियन की जमीन से दूरी कम से कम 30 सेंटीमीटर या उससे अधिक होनी चाहिए।
पानी जमा होने से बचाने और संक्रमण की संभावना से बचने के लिए तने के चारों ओर 10 सेमी गहराई में एक फुट क्षेत्र तक मोटी रेत डाली जा सकती है।
फल तुड़ाई के बाद सेब के पौधों एवं जमीन पर गिरी पत्तियों व पौधों के अवशेषों पर फफूंद नाशक दवा कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव करें जिससे आगामी वर्षों में बाग में यह रोग न फैल सके।
पौधों की ट्रेनिंग व प्रूनिंग इस प्रकार करें कि पौधों के निचले जमीन से लगे हिस्से को भी पर्याप्त धूप मिल सके। धूप लगने पर फफूंद स्वत: ही नष्ट हो जाती है।
मृदा का पीएच मान 5.8 से 6.8 के बीच होना चाहिए,कम पीएच मान याने अम्लीय की दशा में भूमि में चूने का प्रयोग करें।
मृदा में आक्सीजन लेवल ठीक रहने से हानिकारक फफूद नहीं पनपपाते, मृदा का आक्सीजन लेवल तभी ठीक रहेगा जव भूमि की मिट्टी के कणों के बीच Air space होगा अतः भूमि को Compact न होने दें। मिट्टी के कणों के बीच Air space बना रहे इसके लिए अधिक से अधिक जीवांश वाली खादों का प्रयोग करें साथ ही पौधों की सूखी धासफूस से मल्चिंग करें।
उपचार – रोग के लक्षण दिखाई देते ही कालर वाले हिस्से के पास रोग ग्रस्त भाग को तेज चाकू की सहायता से छील लें ज्यादा गहरा न छीलें,छिली हुई संक्रमित लकड़ी और छाल को कपड़े या कागज के टुकड़े पर इकट्ठा करना चाहिए और उचित तरीके से जला कर नष्ट कर देना चाहिए ताकि बीजाणु नष्ट हो जाएं फिर घाव का उपचार किसी फफूंदनाशक पेंट जैसे चौबटिया पेस्ट (कॉपर कार्बोनेट 800 ग्राम + रेड लैड आक्साइड 800 ग्राम + अलसी का तेल एक लीटर ) बोर्डो पेस्ट(10 लीटर पानी में 1 किलो कॉपर सल्फेट और 1 किलो चूना मिलाकर तैयार किया जाता है ) या बोर्डो पेंट (300 मिलीलीटर पानी में 200 ग्राम चूने के साथ 100 ग्राम कॉपर सल्फेट) या कोई अन्य कापर पेस्ट लगाना चाहिए।
गाय का ताजा गोबर और चिकनी मिटटी का पेस्ट लगाने से भी घाव का उपचार कर सकते हैं।
एहतियात के तौर पर मार्च के महीने में तने के चारों ओर 1.5 फीट के दायरे में मैन्कोजेब या कापर आक्सीक्लोराइड (0.3 प्रतिशत यानी 100 लीटर पानी में 300 ग्राम) लीटर पानी में घोल से तर कर लें। अगस्त से सितंबर तक यह प्रक्रिया दोहराएं।