देवभूमि उत्तराखंड के पहाड़ी गांव की झलक गांव की गोठ–कविराज नीरज नैथानी

प्रदीप कुमार

श्रीनगर गढ़वाल। देवभूमि उत्तराखंड पहाड़ी गांव के सामाजिक जीवन पर केंद्रित आलेख पहाड़ी गांवों से जब इस कदर पलायन नहीं हुआ था तथा गांव,घर परिवारों व पशुओं से भरपूर बने हुए थे उस समय गोठ परम्परा प्रचलन में थी।
जैसा कि हम जानते ही हैं कि पहाड़ी खेत आकार व क्षेत्रफल में छोटे होने के साथ ही सीढ़ीनुमा होते हैं।अत:इन खेतों में अच्छी फसल के लिए जैविक खाद पंहुचाना दुष्कर कार्य होता था।
इस समस्या के निराकरण के लिए ही गांव में गोठ परम्परा स्थापित की गयी।गांव के तीन चार परिवार मिल कर अपना समूह बना लेते थे।
प्रात: उस समूह के एक दो सदस्यों के नियंत्रण में उनके समस्त पशु विशेषकर गाय,बैल,बछड़ा, बछिया बकरी आदि चराने के लिए जंगल ले जाए जाते।
हांलाकि वे निरंतर अभ्यास के कारण स्वत: ही चलते जाते व गौचर मैदान में अपनी इच्छा से चारा चरते तथा शाम होने पर स्वभाविक रूप से अपने आप ही लौटने भी लगते तो मैं सोचता कि इन पशुओं के साथ रखवालों की आवश्यकता है।
जंगल में पशु एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक घास पत्ती चरते।साथ में गए चरवाहे जंगल में खेल कूद,मनोरंजन करते।कोई बांसुरी बजाता तो कोई गिट्टी बटिया खेलता।
कोई मधुर कंठ वाला गीत गाकर समय व्यतीत करता।तो कोई किस्से कहानी सुनाता।
कोई आम की गुठली को घिसकर पिपहरी बनाता व फूंक‌मारकर बाजा बनाता।
जब इच्छा हुयी घास के मैदान पर पसर कर लम्पलेट हो गये।पत्तों घास फूस का तकिया बनाया व सो गये या थोड़ी देर के लिए झपकी ले ली। ऐसी मनोरंजन की क्रियाएं होती थीं जंगल में।
कल रात की बची बासी रोटी जो साफे में लपेट कर लायी जाती को प्याज नमक व अमिया के साथ खाया जाता।
बीच बीच में ल्लेह,ल्लेह,आह ले,आआह,आआह ल्लेह की टेर लगाकर पशुओं को भी सचेत करते रहे कि आस पास ही रहनाचरते हुए दूर मत चले जाना।
पशुचारकों का सम्पूर्ण दिन प्रकृति की गोद में,पेड़ पौधों,पशु पक्षिओं सहित वन क्षेत्र के सुरम्य वातावरण में व्यतीत होता।
शाम ढलने पर वे समस्त पशु एक परिवार के खेतों में हांक कर ले जाए जाते।उन खेतों में अधिकांश पशु अस्थायी तौर पर खूंटे गाढ़ कर बांध दिए जाते तथा शेष यूं ही खुले रखे जाते।
लेकिन दूध देने वाले पशुओं को गोठ में लाने से पहले घर लेजाकर दूध दुह लिया जाता था।
अगले दिन के गोठ के लिए उन खूंटों व जूड़ों (पशु बांधने की रस्सी) को संभालकर रख दिया जाता। इसका लाभ यह होता कि उन पशुओं का गोबर खेतों में खाद के रूप में बिखर जाता।
गोठ में रात बिताना, खुले आसमान के नीचे लेटकर तारों को निहारना,तारों का टिमटिमाना देखना,खिले चांद को देखकर मोहित होना,या बारिश होने पर किसी पेड़ की ओट में दुबकना,किस्से कहानी सुनाना,ढेरों बातें करना जैसी गतिविधियों से गोठ की रातें समृद्ध रहतीं थीं।
सामान्यत: सर्दियों की शुरवात होने पर गोठ खेतों से घर वापस लायी जाती थीं। क्योंकि ठण्ड होने पर खुले आसमान के नीचे मवेशी और ना ही उनके साथ रहने वाले रात की ठण्ड कैसे बरदाश्त कर पाते।
इसके लिए भी पंडित जी दिन बार निकालते थे अर्थात किस शुभ योग घड़ी में गोठ घर के पास बनी गौशाला में स्थानांतरित की जाएंगी।
उस समय फसलों में नयी उड़द हो चुकी होती थी।वह धान,झंगोरा व मण्डुआ की कटाई का सीजन हुआ करता था।
गांव के वे लोग जो परदेस नौकरी में थे दीवाली कि छुट्टियों में घर आने की तैयारी कर रहे होते थे।
तो उनके आगमन पर भड्डुओं(भगोने या पतीली जैसे बरतन) में मसालेदार स्वादिष्ट उड़द की दाल बनती थी।ढुंगले,मण्डुए की रोटी व झंगोरा बनता था।
यानि कि गोठ के लौटने का भी उत्सव हुआ करता था।
ऋतुओं के साथ दैनिक जीवन शैली को ढालना सिखाती थी गोठ। खेत खलिहानों से जुड़ना,अनाजों फसलों के बारे में जानना,पशुओं से प्रेम करना,कृषि का ज्ञान प्राप्त करना,प्रकृति से जुड़ना की भी शिक्षा देती थी ये गोठ।
अच्छा पशुओं को नाम भी दिए जाते थे पशुचारकों द्वारा। मसलन काले रंग का बछड़ा कल्या,हल चलाने में निपुण बैल हल्या,लाल रंग का बछड़ा भूरा,छोटे कद का बछड़ा छुट्या,सींग मारने वाला आक्रमक स्वभाव का ऐबी,सीधे सरल सवभाव का लाटु और भी इस तरह‌ के तमाम सारे विशेषण।
ताज्जुब की बात थी कि अपना नाम पुकारे जाने पर वह जानवर कान खड़े करते हुए गर्दन हिलाकर आवाज की दिशा में देखता व पूंछ हिलाकर प्रतिक्रिया व्यक्त करता।
यह था अनोखा मानव पशु संवाद,मानव पशु प्रेम,मानव पशु संबंध।
अगले दिन किसी और के खेतों में फिर उससे अगले दिन किसी अन्य के खेतों में गोठ का क्रम चलता इस प्रकार खाद खेतों में बिखरती रहती।
सामूहिकता,सामुदायिकता, परस्पर प्रेम समन्वय व हम‌ की भावनाओं का आधार होती थी गोठ अब तो पलायन की त्रासदी झेल रहे गांवों में घर के घर खाली हो गए हैं।
जो थोड़े बहुत बचे भी हैं वे खेती नहीं करते जो थोड़ा बहुत खेती करते भी हैं तो पशु नहीं पालते और जो एक आध पशु पालते भी हैं तो गोठ करने लायक संख्या नहीं होती।
इस लिए गोठ की परम्परा विलुप्त सी हो गयी है।
प्रकृति पशु प्रेम,परिस्थितिकी मित्रता,पर्यावरणीय हित,सौंदर्य बोध व आत्मिक संबंधों की प्रगाढ़ता की द्योतक ये गोठ आज केवल स्मृतियों में ही शेष रह गयीं हैं।