बेटे में रहने दो एक अंश बेटी का?

बेटे में रहने दो एक अंश बेटी का? : एक विचार?

 

लेखिका विभा पोखरियाल नौडियाल

‘हम तो बेटा और बेटी में कोई भेदभाव नहीं करते जी’ या
‘हम बेटी को भी बेटे की तरह ही पालते हैं’
ये जुमले तो आम है लेकिन क्या आपने कभी किसी को बोलते सुना है कि हम अपने बेटे की परवरिश भी बेटी की तरह ही करते हैं! शायद नहीं???
धरती पर इंसान बने रहने के लिए आवश्यक है कुछ मानवीय गुण, स्त्री सुलभ गुण, जिसमें कोमलता सर्वोपरि है, जो विकसित हो सकते हैं , एक दूसरे की भावनाओं को समझते हुए, एक दूसरे के दर्द को महसूस करते हुए। एक जैसी परवरिश के स्थान पर एक साथ परवरिश की जाए तो शायद कुछ बात बने।
आश्चर्यजनक रूप से बेटा और बेटी की परवरिश में अंतर भी माता ही प्रारंभ करती है।
भारत जैसे देश में आज भी बेटा पैदा करने वाली मांओं को एक विशेष इज्जत प्राप्त है। आधुनिकता का ढोंग करने वाले लोग भी कहीं ना कहीं बेटे के पैदा होने पर मन ही मन ज्यादा खुश होते हैं ।भले ही कुछ परिवारों में बेटी को खुले दिल से अपनाया है लेकिन आज तक यह नहीं समझे की स्त्री की जरूरतें पुरुषों से कई ज्यादा और भिन्न है।हालांकि समान शिक्षा, समान भोजन ,कुछ हद तक स्वतंत्रता, दोनों को प्राप्त है लेकिन जिस प्रकार से बेटे की परवरिश की जानी चाहिए उसमें माताएं पीछे रह ही जाती है। कारण चाहे कुछ भी हो पर सत्य यही है।
माताओं का पूरा ध्यान बेटी को संस्कारित करने में या यूं कहें उस पर नजर रखने में, उसके चरित्र पर कोई धब्बा न पड़ जाए ,समय से ब्याह हो जाए ,मोटी ना हो जाए और न जाने क्या-क्या बातों पर ज्यादा रहता है। एकाकी ध्यान में वह भूल जाते हैं कि उनके घर में एक बेटा भी जवान हो रहा है। शायद ही कोई मां अपने बेटे की हरकतों पर महीनता पूर्वक नजर रखती हो , इंटरनेट पर हुई सर्फिंग चेक करती हो। मेरा मानना है कि जितनी नजर एक बेटी के आचार, व्यवहार, पहनावे ,खान-पान, रहन-सहन ,शिक्षा दीक्षा और यहां तक कि उसके चरित्र की जिम्मेदारी उठाने का नाटक जितना हिंदुस्तान की माताएं करती आई है अगर उसका एक परसेंट भी बेटे के हाव-भाव और आचार व्यवहार पर नजर रखती तो शायद कोई और बात होती। माता पिता बेटे को जवान होता हुआ देखकर खुश होते हैं लेकिन , नहीं सिखाते उसे कोमल होना , मर्यादित होना ,वह एक पुरुष तो बन जाता है लेकिन मानव बनने में कमी रह ही जाती है ।अपने घर से और अपने समाज से वह अपनाता है तो केवल दंभी होना, कठोरता और नशे में रहना। उसे सिखाया जाता है तो केवल पढ़ लिख कर नौकरी प्राप्त करना और परिवार के लिए खाना, कपड़ा और छत की व्यवस्था करना।अब प्रश्न यह उठता है समाधान क्या हो??
महिलाएं घर के पुरुषों से, चाहे पति हो, भाई, पिता , बेटा ही क्यों ना हो अपनी व्यक्तिगत समस्याएं साझा नहीं करती हैं। नतीजा बेटे को कभी पता ही नहीं चलता कि महिलाओं की आवश्यकता सिर्फ कपड़ा ,खाना और छत नहीं होती ।एक और दुनिया होती है जिसमें लड़कियां अंदर ही अंदर घुट रही होती हैं। उनकी शारीरिक संरचना, मासिक धर्म, हार्मोनल डिसबैलेंस , मूड स्विंग,गर्भावस्था, मोनोपॉज और स्वभावगत कोमलता उन्हें अंदर ही अंदर खाती रहती है।
13 साल की बच्ची स्कूल में डरी सहमी कोने में दुबक रही होती है। उसकी मनोदशा क्या होती होगी कितनी माताएं उनकी काउंसलिंग करवाती हैं। उल्टा यह देखा गया है कि उसे किसी से पीरियड्स स्टार्ट हुए हैं के बारे में बातें करना भी अलाउड नहीं होता। क्या कभी किसी मां ने अपने बेटे से यह चर्चा की कि महीने के कुछ खास दिनों में बहन का ध्यान रखना कितना आवश्यक है??
क्या कभी मां ने अपने बेटे से पूछा है कि कितना मुश्किल होता है एक रात भी किसी के घर में ठहरना । सोचो जो लड़की अपना घर छोड़ कर तुम्हारे लिए आई है उसकी मनोदशा क्या होती होगी। घर परिवार की जिम्मेदारी और वर्तमान समय में तो नौकरी और घर दोनों की जिम्मेदारी है संभालना।
प्रसव वेदना से बाहर निकली स्त्री की मनोदशा को समझ पाना कोई आसान काम नहीं। कदम कदम पर महिलाओं को काउंसलिंग की आवश्यकता होती है लेकिन हमारे भारतीय समाज में महिलाओं का स्वास्थ्य और उनकी मनोदशा पर शायद ही कोई चर्चा करता हो ,हां उसकी शारीरिक संरचना, चारित्रिक गुण दोष पर आप अक्सर गली नुक्कड़ पर चर्चा करते सुन सकते हैं। महिलाएं चाहे तो अपने बेटों में मानवीय गुणों का संचार कर सकती हैं तभी ऐसे समाज का निर्माण संभव है जहां समभाव व प्रेम हो। आइए अभी विचार करें और अपने बेटों में मानवीय गुणों का विकास करें ताकि बेटी विदा करते हुए मां यह ना कहे कि जीवन एक समझौता है बल्कि राहत की सांस ले कि पराए माहौल में कोई है जो मेरी तरह मेरी बेटी को समझता है।

लेखिका विभा पोखरियाल नौडियाल नोट :लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।

प्रस्तुति- गबर सिंह भंडारी श्रीनगर गढ़वाल
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