कविता संग्रह “इंसान मस्ती में चल रहा है”।

गबर सिंह भण्डारी श्रीनगर गढ़वाल

कविता – इस तपतपाती धूप में, धरती का बदन जल रहा है, कमरे में बंद करके हवा को, इंसान मस्ती में चल रहा है।
धूल के उड़ते बवंडर
खाक होते हसीन मंजर
मिट्टी कहे रोकर जमीं से
क्यूं हो रहे मेरे खेत बंजर।
प्रकृति का रक्षक ही देखो,क्रूरुर भक्षक बन रहा है,कमरे में बंद करके हवा को,इंसान मस्ती में चल रहा है।
इंसान चल आहिस्ता आहिस्ता
रौंदता खिलता गुलिस्ता
लगता है इन हरकतों से
प्रकृति का जीवन है सस्ता।
उस कोख में ये लात मारे,जिस कोख में ये पल रहा है, कमरे में बंद करके हवा को,इंसान मस्ती में चल रहा है।
पशुओं के घर बर्बाद कर
अपने महल आबाद कर
दिन-पे-दिन ये मर रहा क्यूं
चंद खुशियों की सौगात पर।
ये चार दिन की मौज को,अपना अनागत कुचल रहा है,कमरे में बंद करके हवा को,इंसान मस्ती में चल रहा है।
देख मनुष्य तू नादान है
प्रकृति प्रलय से अंजान है
स्वार्थपन से रंग ना खुद को
लालच तो ये शैतान है।
वक्त रहते जीवों का मित्र बन जा, क्यूं इतना इनको छल रहा है, कमरे में बंद करके हवा को, इंसान मस्ती में चल रहा है।
कु०काजल चक्रवर्ती
कक्षा – 12 वीं
श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड