फलों का राजा काफल देशी विदेशीयों की पहली पसंद*

 

प्रदीप कुमार

श्रीनगर गढ़वाल। उत्तराखंड की देवभूमि श्रीनगर से खिर्सू लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है ग्वाड़-कोठगी-बुदेशू-चौब्बटा-फेडीखाल,थापला,होलकी,कठुली व आस पास के ग्रामीण क्षेत्रों में पैदा होने वाला फल जिसका नाम काफल है स्थानीय लोगों के साथ ही देशी विदेशी सैलानियों की भी पहली पसंद है।
काफल की यदि बात करें तो यह फल साल के मई-जून में सिर्फ दो तीन माह के लिए ही उगता है। पर इसे खाने वालों के दिलों में ये फल पूरे साल भर अपनी खट्टी मीठी मिठास ओर सुवाद को जिंदा रखता है। काफल जितना खट्टा मीठा होता है उतना ही यह दिल के रोग के लिए भी रामबाण औषधि साबित होता है। इस का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जहां पहाड़ों से पलायन कर चुके युवा पीढ़ी भी खास कर फल को खाने की चाह में इन 35 से 40 दिनों में अपने गांव की ओर अपना रुख करने से अपने आप को रोक नही पाते है। जहां एक ओर पलायन के बाद भी युवा पीढ़ी इसका सुवाद नही भूल पाई है तो वही दूसरी ओर पर्यटन नगरी खिर्सू में हर साल घूमने आते सैलानियों की गाड़ियां भी इन दिनों खिर्सू पर्यटन नगरी जाने से पहले श्रीनगर की सड़कों पर नजर आती हैं व उन गाड़ियों में सवार सैलानी खिर्सू के कोठगी से चौब्बटा तक सड़कों में काफल के पेड़ को ढूंढा करते व काफल के मिल जाने के बाद ही खिर्सू में जाते हैं और काफल के सुवाद चखते हुवे खिर्सू की पर्यटन नगरी की हसीन वादियों का भी लुफ्त उठाते हैं। काफल के विषय में हमें शीशपाल सिंह असवाल मुन्डोली देवलगढ़ ने बताया कि *काफल पाकों मैं नी चाखों* हमारे उत्तराखंड के गढ़वाल की ऊंचे ठंडे स्थानों पर बाजं बुरांस की बीच में काफल पेड़ होते हैं,यह काफल फल चैत्र बैशाख माह से पकने शुरू हो जाते हैं और करीब दो तीन माह तक खूब का काफल जंगलों में रहते हैं। उन्होंने बताया कि आज से 35-40 साल पहले हमारे उत्तराखंड की मां बहने बच्चे उसे दौर में अपने बड़े ही संघर्ष जीवन से अपनी दिनचर्या चलाते थे हमारे गांव में काफल वाली मां बहने बच्चे अपनी कण्डी (टोखरी) में ताजे काफल भरकर बेचने आते थे,उस वक्त एक माणी या सेर के भाव से काफल लिया जाता था बदले में वह मसूर दाल या जो भी अन्य अनाज होता वह ले जाते थे और जिनको अपने काफल रूपए पैसे में बेचना होता था वह एक माणी-सेर बिना मूल भाव के बेच देते थे,आज भी कहीं गरीब घरों की मां बहिनें शाम के समय जंगलों में जाकर काफल तोड़ कर लाती है और भाई बन्धु सुबह अपनी टोकरी भरकर पौड़ी-श्रीनगर शहर में जाकर काफल बेचने जाते हैं जिससे उनको काफल के अच्छे दाम भी मिल जाते हैं लेकिन अब माणी-सेर की जगह गिलास के हिसाब से अपने ताजे काफलों को बेचते हैं। *बेडू पाको बारामासा,काफल पाको चैत मासा।*