प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल, आध्यात्मिक चेतना का उत्कर्ष प्राप्त करने की तीन मान्य विधियां हैं,-ज्ञान(चित व मनन)
कर्म(अनुष्ठान अथवा कर्मकांड)तथा शक्ति(ईश्वर के प्रति पराणुशक्ति)नारद पञ्चांग के अनुसार मनुष्य द्वारा अपनी समस्त इंद्रियों को इंद्रियों के स्वामी प्रभु की ओर पूरी तरह उन्मुख कर देना ही शुद्ध भक्ति का स्वरूप है,भक्तियोग सगुण व निर्गुण में विभक्ति है,देहधारियोंकी प्रकृति के अनुसार सगुणभक्ति के तीन प्रकार वर्णित है -सात्विक,राजसिक,तामसिक का मन की गति अकारण तैलधारावत अवांछित एवम् अखंडित भगवान की ओर प्रवाहित होने को निर्गुणभक्ति कहा गया है,वस्तुत: सच्चा भक्त सबकुछ छोड़ मात्र भगवदानुराग के दिव्य आनंद में ही सदैव निम्न रचना चाहता है यही अहै तुकी भक्ति।
अष्टवक्र गीता मे विषयों का नीरस हो जाना ही मोक्ष (कैवल्य अथवा मुक्ति) तथा विषय में रस आना ही बंधन कहागया है,(मोक्षों विषय वैरस्य बंधो वैशयिको रस:)मुक्त पांच प्रकार की वर्णित है सायुज्य(भगवान से तादात्म्य अथवा एकत्व) सालोक्य (भगवान के लोक में निवास)सारुप्य(भगवान के समान रूप प्राप्ति) सामिप्य(भगवान के निरंतर सानिध्य) साश्रीट (भगवान की भांति ऐश्वर्य प्राप्ति) श्रीमद् भागवत भगवान कपिलदेव ने माता देवहुति से तथा स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जी ने उद्धव जी व दुर्वासा मुनि से अपने भक्तों से उपर्युक्त पांचों प्रकार की मुक्तियों को तृणवत हुकरते हुए सदैव भगवतसेवा में ही संतुष्ट रहने की बात कही है,विरह एवम वियोग में प्रेम की तीव्रता बढ़ने के कारण भक्तजन सालेक्य एवं सामिष्य मुक्ति को तथा निरपेक्ष होने के कारण सारुप्या एवम् सार्टि मुक्ति को कभी स्वीकार नही करते,भगवानमें तदाकार होना सयुक्तमुक्तितो निष्काम भक्त को किसी स्थिति में स्वीकार्य नहीं भले ही शेष चार अवस्थाओं को अवांछनीय होते हुए भी अनुकूल क्यो न मामले,वृतासुर,महाराजापृथु,राजाभरत,ब्रह्मर्षि मारकांडे,भक्त प्रह्लाद,चिरंजीवी,काकभुशुंडीजी,हनुमानजी,नागपतियों एवम श्रुतियों (साक्षात वेद)द्वारा ही गई स्तुतियों एवम प्रार्थना प्रमाण है कि प्रभु से मात्र उसकी नित्य भक्ति ही रचना कहते हैं,अन्य कुछ भी नहीं मांगते,
गोस्वामी तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस में भरत की कथा भी युक्ति की पुष्टि करता अस्त न धरम न काम रुचि,गति न चहहु निरवान जनम जनम रति रामपद,यह वरदान न आना वृन्दावन रसोपासना में श्रीकृष्ण की ऐश्वर्य लीलाओं का विंचित महत्व नही है,गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीकृष्ण गीतावाली में ब्रज गोपांगनाओ द्वारा उद्धव जी से प्रकट मंतव्य दृष्टिकता है,-वह अति ललित मंत्रोहर आनन कौनोजतन विसरो, जागो जुगुत आराम मुकुति विविध विधि वा मुरली पर वारो ,भक्त प्रबल रसखान भी कुछ ऐसा ही भाव रखते हैं,या लकुटी अरु कामरिया पर,राज तिहूँ पुर कौ तजि डारो,आठहु सिद्धि नवों निधि कौ सुख, नंद की गाई चराई विसरों सचमुच भक्ति महान है।