उत्तराखंड में तीर्थाटन व पर्यटन–डॉ.शंकर कला

प्रदीप कुमार

श्रीनगर गढ़वाल। खंडापंच्च हिमालयसथ कथितो नेपाल कुर्मा चलो केदारोथ जलरोध रुचिर: कश्मीर सन्ज्ञोतिमं ।।
स्कंदपुराण,केदारखंड हिमालय के 5 खंड, जिनमें नेपाल, कुर्मांचल, केदार,जालंधर व काश्मीर खंड बताए गए हैं।
उत्तराखंड में “पर्यटन” और” तीर्थ- यात्रा” पर चर्चा करने से पहले हमें तीर्थ यात्रा व पर्यटन को समझना होगा। तीर्थ यात्रा, मूल रूप से तीर्थ शब्द की व्युत्पत्ति है । तीर्थ का अर्थ है तारने वाला । अर्थात जो भवसागर से तार दे व वह तीर्थ है। तीर्थ के अंदर केवल तीर्थ स्थल ही समाहित नहीं है ,बल्कि तीर्थ के अंदर मानव का व्यवहार व उसका कार्य व्यवहार भी सम्मिलित है। “”क्षमातीर्थम दयातीर्थ, तीर्थमिंद्रिय निग्रह। अर्थात इंद्रियों का निग्रह भी तीर्थ है।
अपनी इंद्रियों को वश में रखना तथा उनसे समुचित व्यवहार करना और उनका प्रयोग मानव व सृष्टि की उन्नति में करना ही” तीर्थ” है। पश्चिमी देशों का पर्यटन एक आधुनिक विचार है ! पश्चिमी देशों में “टूरिज्म”शब्द घूमने सैर करने, और आनंद लेने का पर्याय है। पश्चिमी देशों का पर्यटन ,पूर्ण रूप से “भोग विलासिता” के लिए ब्यापारादि का एक माध्यम है जबकि भारतीय दर्शन में तीर्थ ,मानव कल्याण का, सृष्टि के कल्याण का, समाज के कल्याण का ,प्रकृति के कल्याण का एक हेतु है।
वास्तव में पर्यटन और तीर्थ यात्रा दोनों ही यात्रा की क्रिया पर आधारित है। तीर्थाटन हो या पर्यटन दोनों ही कार्यों के लिए” यात्रा” आवश्यक है । बिना यात्रा के दोनों ही संभव नहीं है।
अब अगर यात्रा पर नजर डालें तो ज्ञात होता है कि यात्रा का जीवन से अविच्छिन्न संबंध है। जीवन स्वयं में एक यात्रा है लेकिन यहां हम भौतिक रूप से यात्रा को समझने का प्रयास करेंगे।एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने की क्रिया को विस्थापन कहते हैं, और यात्रा इसी प्रकार का विस्थापन है। विश्व पटल पर यात्रा के कई कारण मानव की उत्पत्ति के साथ स्पष्ट हुए हैं। जीवन के विकास की यात्रा एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की प्रक्रिया भी यात्रा है। इसके कई कारण है। धर्म यात्रा, युद्ध- यात्रा, देशाटन, शिक्षाटन, भिक्षाटन शोभा यात्रा, विजय यात्रा, सामान्य यात्रा, शव यात्रा,।
स्वास्थ्य,ब्यापार आदि कई कारणों से भी यात्रा की जाती है.। मानव ‌के” स्वयं का,समाज ,प्रकृति व सृष्टि का कल्याण करने के भाव को लेकर कोई यात्रा की जाती है तो उसे तीर्थयात्रा कहते हैं।
इसके विपरीत जब मात्र घूमने आनंद लेने सैर करने व विभिन्न प्रकार के भोगों, ब्यापार आदि,लाभ को प्राप्त करने शारीरिक सुख प्राप्त करने का भाव होता है तो वह भोगवादी चिंतन होता है और यही भोगवादी चिंतन ही वर्तमान पाश्चात्य पश्चिमी देशों के” भोगवादी पर्यटन का आधार है।
इंद्रिय सुख विभिन्न प्रकार के भोग,शारीरिक सुख और आनंद प्राप्त करना ,पश्चिमी पर्यटन का मूल विचार है।
पर्यटन और तीर्थाटन दोनों ही यात्रा की क्रिया द्वारा संचालित होते हैं अर्थात दोनों में यात्रा की जानी आवश्यक है।
भारतीय दर्शन में मानव की किसी भी”” क्रिया””या कार्य”” को एक सीमित व सुसंस्कृत रूप में संचालित करने का भाव विद्यमान है जोकि पश्चिमी दर्शन में न्यून है।यथा ,पठन,भोजन,शयन,मैथुन, विवाह, आदि।
इन सभी कार्यों में मानव द्वारा उपयोग की जाने वाली किसी भी क्रिया से समाज, सृष्टि,पृकृति,पर कोई विपरीत असर न पड़े, इसलिए, समाज ने इनके लिए नियम बनाए हैं।
ये नियम सामाजिक संस्था के स्वरूप में स्थापित हैं।
विवाह एक संस्था है जिसमें पति पत्नी संबंधों में रहते हैं, लेकिन उनपर मर्यादित आचरण के साथ परिवार,व ‌बच्चों के‌भरण पोषण की जिम्मेदारी समाज ने निश्चित की है।
इसके विपरीत मात्र स्त्री पुरुष संबंध वैश्यावृत्ति या जार कर्म है । जिसमें कोई जिम्मेदारी नहीं है।यात्रा” की क्रिया से भी समाज को किसी प्रकार की हानि न पहुंचे इसके लिए भारतीय दर्शन में “तीर्थयात्रा “व अन्य प्रकार की यात्राओ के लिए नियम निर्देश किए गए हैं। कुल मिलाकर यात्रा जो कि मानवीय ऐच्छिकक क्रिया है ,उससे भी किसी प्रकार की क्षति समाज या प्रकृति को न पहुंचे, बल्कि यात्रा की क्रिया द्वारा मानव व सृष्टि का उत्थान हो इसलिए तीर्थ यात्रा पद्धति को अपनाया गया” ‌कि हम यात्रा के द्वारा भी सबका उत्थान करें।
इसी प्रकार किसी भी यात्रावृत्ति के दौरान मानव को कुछ जिम्मेदारियों का निर्वहन करना समाज ने सुनिश्चित किया है ।
उनकी यात्रा की क्रिया द्वारा किसी को किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचे बल्कि उनकी यात्रा के द्वारा समाज व सृष्टि को लाभ हो और स्वयं मानव का कल्याण भी हो । वेश्यावृत्ति की ही तरह अनावश्यक व अनियंत्रित घूमघाम को भारतीय दर्शन में “आवारागर्दी” कहते हैं जिसको समाज मान्यता नहीं देता।
अब हम उत्तराखंड के तीर्थाटन और पर्यटन पर चर्चा करते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार चार धाम प्रचलित है। इनमें से एक धाम श्री बद्रीनाथ या बद्रिकाश्रम है। कहते हैं की आदि गुरु शंकराचार्य ने भारतवर्ष में चार धामों की स्थापना करके, पूरे भारत को एक सूत्र में जोड़ने की अनोखी परंपरा की आधारशिला रखी।
अब प्रश्न यह उठता है की संपूर्ण हिमालय क्षेत्र में केवल श्री बद्रीनाथ कोही चार धामों में संयुक्त क्यों किया गया?हिमालय के कई अन्य क्षेत्र भी है लेकिन केवल श्री बद्रीनाथ को ही “धाम” की मान्यता दी गई। हिमाचल जम्मू कश्मीर दार्जिलिंग अरुणाचल सिक्किम नागालैंड असम आदि हिमालई क्षेत्रों में धाम की स्थापना क्यों नहीं की गई? उत्तर स्पष्ट है। श्री बद्रिकाश्रम क्षेत्र आदिकाल से ही ऋषि मुनियों की देवताओं की पवित्रस्थली मानी जाती रही है। हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ,पूर्वजों ने केवल उत्तराखंड केदारखंड क्षेत्र को ही देव भूमि का दर्जा दिया। किसी अन्य प्रदेश को नहीं दिया।
कारण स्पष्ट है की यह क्षेत्र ध्यान ज्ञान तपस्या विद्या चिंतन व मोक्ष का क्षेत्र रहा है। पांडव भी मोक्ष प्राप्त करने यही आए। महाभारत वन पर्व में इसका विस्तृत वर्णन है।
इसका कारण इस क्षेत्र की भूस्थलाकृति है।यह क्षेत्र हिन्दुओं का मोक्षक्षेत्र है।स्वर्गागमन का मार्ग है।मन कर्म वचन, प्राण, मस्तिष्क, की शक्तियों के उन्नति और शुद्धीकरण का सबसे अहम क्षेत्र है। यह भारतवर्ष रूपी घर का पूजा का कक्ष है।यह विश्व में हिन्दुओं की सनातनी संस्कृति को जीवित रखने का शक्ति श्रोत है।
देश की सुरक्षा हेतु तीर्थांतन पर गंभीर ध्यान देना आवश्यक है भाेगवादी पश्चिमी पर्यटन से सामाजिक चरित्र, पर्यावरण, संस्कृति का पतन, आदि पर संज्ञान लेकर शून्य काल के सिद्धांत पर उत्तराखंड में पर्यटन तीर्थाटन का नियोजन होना चाहिए।