धरती की व्यथा पर आधारित एक कविता— जन-जन की है, यही पुकार, पर्यावरण बचाओ, पर्यावरण बचाओ,।

गबर सिंह भंडारी

श्रीनगर गढ़वाल। राजकीय इंटर कॉलेज सुमाडी में हिन्दी अध्यापक अखिलेश चन्द्र चमोला की कविता की सराहना वर्तमान परिदृश्य में पूरे राज्य मे हरेला पर्व मनाया जा रहा है। इस पर्व के पुनीत सुअवसर पर पूरे पखवाड़े में पर्यावरण के संरक्षण का संकल्प ले धरती को हरा भरा बनाने का प्रयास किया जा रहा है,जो कि अपने आप में उत्कृष्ट मुहिम को दर्शाता है,लेकिन इस मुहिम कुछ इस तरह के भी हैं,जो पर्यावरण के नाम पर केवल फोटो खिंचाकर सुर्खियों में अपना नाम बटोरने का प्रयास कर रहें हैं,इस सन्दर्भ में अखिलेश चन्द्र चमोला द्वारा लिखी कविता धरती की ब्यथा इस तरह के तथाकथित पर्यावरण प्रेमियों पर बहुत बडा व्यंग्य होने के साथ साथ एक सीख भी है। प्रस्तुत कविता इस तरह से है —“”धरती की व्यथा””
जन-जन की है,यही पुकार,
पर्यावरण बचाओ,पर्यावरण
बचाओ,
मुहिम छेड रहे पौध रोपित करने की,
नित देखने को मिल रही,
कार्य क्रमों की बयार,
कहां कितने पौध लगे,
धरती बेचारी है सूनी,
जन-जन की है यही पुकार ,
पर्यावरण बचाओ, पर्यावरण बचाओ,
पौधों से सजा दिया धरती को,
खिंचा दी सारी तस्वीर अपनी,
सुर्खियों में छा गये ,
मीडिया में चमक गये,
पौध भेंट करते करते ,
रोपित पौध भी दबा दी,
जन -जन की है,यही पुकार,
पर्यावरण बचाओ, पर्यावरण बचाओ,
भेंट कर दिए अनगिनत पौधे,
समाचार छ्प गया सुर्खियों,
धरती बेचारी प्रतीक्षा करती रही,
धरती अपनी मौन ब्यथा, सुनाये तो सुनाये किसे,
जन-जन की है,यही पुकार,
पर्यावरण बचाओ, पर्यावरण बचाओ,
पर्यावरण के नाम पर,अपना नाम फैला रहे,
कब तक यह सब,धरती सहन करती रहती,
क्रुद्ध हो गई, विचलित हो गई अपने मार्ग से,
फैला दिया अपना कहर चारों ओर,
कहीं बाढ, कहीं भूकंप से,
जन-जन की है,यही पुकार,
पर्यावरण बचाओ, पर्यावरण बचाओ।