आइए बोलना सीखें ?

आइए बोलना सीखें ?:एक विचार–विभा पोखरियाल नौडियाल

विज्ञान कहता है इस संसार में कुछ भी नष्ट नहीं किया जा सकता न पदार्थ,. ना विचार और ना ही शब्द । यही धर्म भी कहता है कि, जो हम बनते हैं इसी संसार में विचरण करने वाले विचारों का प्रतिफल होता है। फिर जो यह गंदे विचारों की, आकांक्षाओं की, महत्वाकांक्षा , लालसाओं, और अभिलाषाओं की चारों ओर बाढ़ सी है, का प्रभाव मानव अस्तित्व पर किस प्रकार पड़ता होगा ? यह विचारणीय प्रश्न है ।
यह प्रभाव शायद सभी की अवनति का कारण भी है या हो सकता है ! किसी भी अवनति के लिए कभी भी कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार नहीं होता, चोर, उचक्के, डाकू समाज को उतना नुकसान नहीं पहुंचाते जितना तथाकथित पढ़े-लिखे आत्मशलाघा से ग्रसित निर्णायक पद पर बैठने वाले लोग सफ़ेदपोश वो चाहे घर के मुखिया हों या समाज के, आज सब लोग शिक्षा को दोष देते हैं ।शिक्षा प्रणाली बदल रही है इसलिए समाज में संस्कार नहीं आ रहे हैं । अपनी गलतियों के लिए हमेशा दूसरों को गलत है ठहराना किसी भी तरह से तर्कसंगत नहीं है। आखिर शिक्षा की दयनीय स्थिति के लिए भी तो हम ही जिम्मेदार हैं।
माफी चाहूंगी, आज से 100 साल पहले शिक्षा चंद लोगों को मिली थी लेकिन संस्कारी सभी थे । संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ते हैं ।
उदाहरण के तौर पर ,बिना मुंह खोले फिर भी अगर आपने सुबह उठकर अपने बूढ़े मां बाप को हाथ पकड़कर उन्हें बाथरूम तक ले जाने में उनकी मदद कर दी तो वह विचार बहुत दूर तक काम करेगा क्योंकि उसको आपका बच्चा सुन नहीं रहा है, देख रहा है। बच्चों को सिर्फ अच्छा-अच्छा देने के चक्कर में हमने उन्हें वास्तविकता से बहुत दूर ले जाकर खड़ा कर दिया है।
हम लोग अपने बच्चों को घुमाने के लिए देश-विदेश की खूबसूरत जगहों का चयन करते हैं । मैं, कहती हूं जरूर ले जाइए, लेकिन साथ में दिखाइए असली भारत की तस्वीर भी, गंदे नदी नालियों के किनारे बसने वाले लोगों, वृद्ध आश्रमों में पड़े हुए बुजुर्गों, गलत आदतों के प्रतिफल स्वरूप अस्पतालों में चल रहे मरीजों और दूर मत जाइए कभी-कभी अपने पड़ोस में बीमार व्यक्ति को देखने के लिए भी जाइए। ले जाइए अपने बच्चों को अपने साथ सब जगह ताकि उन्हे विद्यालयी शिक्षा के साथ साथ मिले सामाजिक समरसता और आवश्यक जीवन मूल्य का पाठ ।
माता-पिता को बच्चों को इसलिए कुछ नहीं बोलते कहीं नाराज हो गए ,बहु नाराज हो गई, बेटा नाराज हो गया , दामाद नाराज हो गया , घर से बाहर बोले तो पड़ोसी नाराज हो गए फिर अधिकारी नाराज हो गया , अरे नाराज हो गया तो क्या ???ज्यादा से ज्यादा आपको शारीरिक रूप से हानि पहुंचाएंगे या आप को घर से बाहर निकाल देंगे और क्या होगा। लेकिन आप प्रयास करना छोड़ देंगे तो अनर्थ हो जाएगा । वह तो कभी समझ ही नहीं पाएंगे क्या गलत है और क्या सही। सोचिए अगर हमारे पूर्वजों ने बुराइयों के खिलाफ आवाज नहीं उठाई होती या अपनी जान की परवाह की होती तो आप इस स्वतंत्रता का आनंद उठा पा रहे होते?? आखिर अब जब सब कुछ दांव पर है तो चुप रहकर क्या बचाना चाहते हो।
जरूरी नहीं कि सीमा पर बैठा फौजी अपना कर्तव्य निभाएं तभी देश की उन्नति हो या देश सुरक्षित हो । हर वह व्यक्ति जो अच्छे विचारों का जन्मदाता है, जो अपने आसपास अच्छे विचारों को फैलाता है, भले बुरे की परवाह किए बिना सबके भले में निर्णय लेता है । वह भी समाज में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना सीमा पर बैठा हमारा सैनिक।
गलत को गलत बोलना सीखें, अपने कंफर्ट जोन से बाहर आयें और समाज में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें ।
विभा पोखरियाल नौडियाल (लेखिका)
नोट :लेखक के व्यक्तिगत विचार है

प्रस्तुति- गबर सिंह भंडारी श्रीनगर गढ़वाल