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हारा कब हूँ………….
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मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ,
किस्मत लिखता हूँ किस्मत का मारा कब हूँ ।
गिरता हूँ मैं फिर उठकर गिरि पर चढ़ता हूँ ,
अंश देव का हूँ भू पर बेचारा कब हूँ ।।
मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ।।
पथ पर आतीं कोटि शिला तोड़ा करता हूँ ,
अगणित तूफानों का मुँह मोड़ा करता हूँ ।
चलता हूँ मैं आज सोचता हूँ मैं कल की,
बीते कल को धूल समझ छोड़ा करता हूँ ।।
चाह पुहुप की रखता हूँ अंगारा कब हूँ ।
मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ।।
किस्मत लिखता हूँ किस्मत का मारा कब हूँ ।
मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ।।
कहता नहीं समझता हूँ भारत है माता ,
गीत सदा ही देश राग के उर से गाता ।
दिया देश ने मुझे,बहुत पाया है मैंने ,
एक नहीं इससे मेरा जन्मों का नाता ।।
गीता है रसना में जब खारा कब हूँ ।
मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ।।
किस्मत लिखता हूँ किस्मत का मारा कब हूँ ।
मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ।।
चाह अमिय की रखता हूँ मैं जब जीवन में ,
पीना होगा गरल बसी हैं बातें मन में ।
पथ पर मेरे लाखूँ हों चाहे बाधायें ,
शिव दिख जाता है मुझको पथ के पाहन में ।।
मैं बनकर दीन कहो हाथ पसारा कब हूँ ।
मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ।।
किस्मत लिखता हूँ किस्मत का मारा कब हूँ ।
मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ।।
मेरे उर में साहस की नद को पायेगी ,
तो देखो मंजिल ही खुद चलकर आयेगी ।
रुकना, झुकना बाधाओं से क्यूँ डरना है ,
तपिश भले हो सावन की घट भी छायेगी ।।
उर में भरा उछाह नैराश्य धारा कब हूँ ।
मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ।।
किस्मत लिखता हूँ किस्मत का मारा कब हूँ ।
मैं मानव हूँ पराभवों से हारा कब हूँ ।।
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©️डा० विद्यासागर कापड़ी
सर्वाधिकार सुरक्षित
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