प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल। उत्तराखंड की ऐतिहासिक भूमि पर अनेको सिद्धपीठ पौराणिक देब स्थल स्थापित है ऐसा ही आज पाठकों को रुद्रप्रयाग जनपद के बच्छणस्यूं पट्टी में स्थित पौराणिक सिद्धपीठ आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित लक्ष्मीनारायण मंदिर बैरागना के विषय में पुराणवक्ता प्रकाश चन्द्र चमोली ने बताया कि नारायणः परम् धाम ध्याता नारायणः परः।
नारायणः परो धर्मो नारायण नमोस्तुते।।
भूलोक का गौरव उत्तराखंड की धरती में अनेकों पुण्य स्थल विद्य मान है जिनमें रुद्रप्रयाग जनपद का पट्टी बच्छणस्यूँ के मध्य में स्थित है भगवान लक्ष्मीनारायण का पावन पुनीत देवालय है नारायण उपनिषद का दावा है कि सभी देवता सभी ऋषि और सभी प्राणी नारायण से पैदा होते हैं,और नारायण में विलीन हो जाते हैं। विभिन्न युगों और ग्रंथों के अंशों में इस बात का उल्लेख किया गया है,यह मन्दिर समूह नागर शैली में बना है नागर शैली प्रमुख रूप से उत्तर भारत में मंदिर निर्माण शैली रही है। इस शैली के मंदिर हिमालय क्षेत्र में ज्यादा है इसी को बाद में कैत्यूर शैली भी कहा गया है,उत्तराखंड में 7 वीं से 11वीं शताब्दी में कत्यूर वंश के राजाओं ने कई मंदिरों का निर्माण करवाया तब से उनके नाम से यह शैली प्रसिद्ध हुई है इस मन्दिर समूह है सब मन्दिर में विभिन्न देवताओं के मन्दिर है मुख्य मन्दिर में लक्ष्मीनारायण का विग्रह है कोई मन्दिर मूर्ति विहीन भी है गोरखाओं के समय या उसके बाद मूर्ति वहां से चोरी हो गई होगी,इसकी सगती श्रीनगर में के लक्ष्मीनारायण मंदिर से बैठती है,केशरोयमठ एवं अन्य जो बद्रीनाथ के मन्दिर है उनसे मिलती है,पौ.बन्दोबस्त रिकार्ड 1890 के अनुसार ज्ञात होता है कि बैरागणा एक तोक है पहले मन्दिरों के गूंठ होते थे वहां 25 नाली में माधोदास का बगीचा था इतिहास कार डॉ.शिव प्रसाद नैथानी ने इस बात की पुष्टि की है बद्रीनाथ जी के नाम पर यहां मन्दिर है जब कभी भगवान बद्रीनाथ की यात्रा या मूर्ति यहां से गई होगी तब से यहां मन्दिर बने हैं,यहां के निवासी एवं पूर्व प्रधान एवं पुजारी जयकृष्ण भट्ट बताते हैं कि हम लोग बद्रीनाथ नहीं जाते थे क्योंकि हमारे लिए यही बद्रीनाथ है। ऐसी मान्यता वहां प्रचलित है यहां शुद्ध वैष्णव लोग रहते हैं वहां आज भी लोग खेतों में लहसुन प्याज नहीं लगाते हैं। इसीलिए वह स्थान हमारी पट्टी का बच्छणस्यूं का सबसे पवित्र स्थान माना जाता है यहां पर प्रत्येक महिने अलग-अलग भट्ट परिवारों द्वारा पूजन किया जाता है समय समय पर भक्तों द्वारा भण्डार कीर्तन कार्य क्रम भी यहां किया जाता है सच्चे मन से की गई पूजा। यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम जिसके हम लोग साक्षी है विक्रम सिंह पटवाल एवं जसपाल गुसाईं जब सन 1995 में वहां पर भविष्य पुराण एवं शिवपुराण किया गया था उसमें जितने भी लोग सामिल थे वे अपने-अपने क्षेत्र में सफल हुए है प्राचीन समय में पूरी पट्टी की रामलीला यही पर होती थी बच्छणस्यूँ महोत्सव भी इसके नजदीक ल्वण्याँ बगड़ में होता है इस मन्दिर समूह के बगल में आंकसेरा गांव है जहां आंक का पेड़ है जो अन्यत्र पुरे एरिया में नहीं है यह औषधीय वृक्ष माना जाता है किसी की आवाज स्पष्ट न होने पर इसके पत्तों में भोजन कराया जाता है। जिससे आवाज साफ हो जाती है अनेक मान्यताओं परम्पराओं से ओतप्रोत हमारी लोकमान्यताएं है। इस मन्दिर समूह के निकट बछणगाड के किनारे सूर्य कुंड है जिस सूर्य को वेद में सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च (यजुर्वेद 7 सुवति प्रेरयति कर्मणि लोकम् अर्थात सूर्य ही कर्मयोगी की तरह इस संसार को चलायमान रखते हैं। चिकित्सक के रूप में: सूर्य का प्रभाव शरीर और मन पर बहुत गहरा पड़़ता है। यद्यपि भारत में सूर्य कुंड के नाम से अयोध्या हरियाणा में सूर्य कुंड है उत्तराखंड में भी अन्यत्र हो सकते हैं परन्तु यहां क्षेत्र विशेष में इसकी महत्ता है स्कन्द पुराण में इसका प्रसंग है हमारे यहां ताल तलैया कुंड झील धारे पन्देरें गड़ गाड़ नदी न्यार इन सबका इतिहास है,भौगोलिक परिवर्तन से इनका स्वरूप उस रुप आज नहीं है। प्रतीक स्वरूप में आज भी विद्यमान है यह जो सूर्य कुंड है यह बिरही के ठीक नीचे है हमारे इस क्षेत्र के लोग नदी में न जाकर पर्व विशेष पर यहीं स्नान की परम्परा रही है साथ ही जब भी कहीं देव पूजन होता है पहले यहां सारे देव निशानों का स्नान देवता के पश्वा (जिन पर देवता अवतरित होता है) यहां स्नान पूजन के बाद ही पूजा सिद्ध मानी जाती है यहां पर स्नान से पाप ताप सन्ताप्त समाप्त होते है।