मानव का स्वरूप “–एम.एस.रावत

प्रदीप कुमार श्रीनगर गढ़वाल

मानवानी कर्म से बुराई रहित होने पर धर्म अभिव्यक्त होता है,और फिर सभी के अधिकार सुरक्षित होने लगते हैं,जो मानव अपने घर सभी के अधिकार मानलेटा है, वह धर्मात्मा हो जाता है,थी शुद्ध भौतिक बाद है, इस श्रृष्टि से धर्मात्मा की मांग सभी को होती है,और उसमे स्वाधीन होने की सामर्थ्य आजती है,बल का सदुपयोग ही धर्म है,इसी से विस्व- शांति की समस्या होती है, इसी से मानव को चिराशांति तथा अमृत्व की प्राप्ति होती है।
मानव स्वरूप क्या है?शरीर मानव का स्वरूप नही है,क्रत्व्यपरायण,विवेक,का प्रकाश और विश्वास का तत्व जिसमे है?वही मानव है,मानव मात्र से मानव बीजरूप में विद्यमान है,मानवता में पूर्णत: निहित है,मानव का अर्थ है,सेवा,त्याग,और प्रेम मानव जीवन का सर्वोत्कृष्ट विकास है,सेवक होकर विश्व में त्याग द्वारा निज स्वार्थ से और प्रेमी हो कर अपने प्रेमास्पंदन से विभिन्न हो जाना इसके लिए किसी प्राश्र्य,परिश्रम तथा अभ्यास की अपेक्षा नहीं है,सेवा भाव आते ही त्याग का बल एवम् प्रेम का उदय स्वत: होता है,साधक के लिए आत्म निरीक्षण सर्व प्रथम पुरूषार्थ है, परन्तु बेचारा पर दोषदर्शि आत्म-निरीक्षण कर ही नहीं पाता साधक को सजगता पूर्वक यह अनुभव करना चाहिए कि मैं शरीर नही हूं,सर्व- समर्थ प्रभु अपनी अहेतुकी कृपा से मानव मात्र को ‘साधक स्वीकार करने की समर्थ्य’ प्रदान करे यही सदभावना रखे,साधक का पुरश्वर्थ सत्संग है,और साधना तप की प्राप्ति एकमात्र सत्संग से ही साध्य है,सही साधक बनाने के लिऐ व्यक्तिगत.परीवारिक और सामूहिक सत्संग करना आवश्यक है,सत्संग के द्वारा कर्तव्यनिष्ठा: विवेक के प्रवेश के द्वार दु:खों की निवृति ,चिर-शांति तथा अमर जीवन की प्राप्ति एवम् विश्वास-तत्व के द्वारा परम-प्रेम की प्राप्ति होती है।
मानव सृष्टि की अनुपम रचना है,मानव उदार हो सकता है,स्वाधीन हो सकता है,और प्रेमी हो सकता है,सुंदर मानव का चित्र है,शरीर दुनिया के काम आजाय,अहम अभिमान शून्य हो जाए,और हृदय परम प्रेम से परिपूर्ण हो जाए,सत्य की प्राप्ति के लिए भविष्य की आशा मत करो,भूतकाल की सभी घटनाओं को भूल जाओ,पर उन से सिख ग्रहण जरूर करले,अनुकूलता की आशा मत करो,ओर प्रती कूलता का भय मत करो,व्यक्तित्व की गुलामी से सत्य नही मिलता ,पर्याप्त प्रायश्चित होने पर पाप मिट जाता है, प्रायश्चित करने का सही अधिकार वही है,जोकि हुई भूल को नही दोहरता,जितना सुख उससे उत्पन्न होता है,उससे कहीं अधिक व्याकुल होता है। प्रश्चित से किया पाप मिट जाता है,क्रिया की पूर्णतः यही होने पर क्रियाजनित रस विषयों का राग नही रहता,जिस कर्म से विषयों के प्रति वैराग न हो ,वह कर्म अधूरा है,अधूरा कर्म करने वाला प्राणी कर्म बंधन से छुट नही सकता कर्म बंधन,छूटने पर ही शांति मुक्ति और भक्ति की प्राप्ति होती है।