नरसे नाराय–एम.एस.रावत

प्रदीप कुमार

श्रीनगर गढ़वाल बीज जब बृक्ष बन जाता है,तब उसका विकास रुकजाता है, लेकिन फल और पत्तीयों के रुपमें उसकी परिपूर्णता प्रकट होती रहती है,प्र बृक्ष की यह वही मूर्खता ज़ब प्लान होने लगती है तो बृक्ष पुनः बीज होने की संभावना से जुड़ जाता है, बीज से बीज होना नर से नारायण होने की यात्रा है, हर विकास की एक चरण प्रनीति है,इसके बाद उसका प्रत्यावर्तन है, इन दोनों विन्दुओं के बीच ही प्राण संत्रण है, सृष्टि और प्रलय के बीच ही आकार, नाम, और रूप धारण करती है, कर्म, अकर्म, और विकर्म की गाथा का लेखक बीच के अंतराल की कथा वस्तु है।
आध्यात्म इसी संरक्षण का अंतरमुखी अध्ययन है, आत्मओंपलब्ध इस का लक्ष्य है, आकारों में दूध में मखन की भांति परमात्मात्व व्याप्त है, उससे अपना नाता जोड़ने के लिए स्वयं में मथानी की भांति संयमित हो क़र उन सारे आवर्णो को हटाने की साधना का अभ्यास करना पड़ेगा, जो नवनीत को वासनाओं की भांति चारों ओर से घेरे है, यह तभी संभव होता है, ज़ब साधक मथनी रूपी सद्गुरु के हाथों में सौंपक़र स्वयं को कर्ता भाव से मुक्त क़र लेता है, आवरण का गिरना प्रमात्म चेतना का अभ्युदय है, स्वस्थतन,मन, निर्मल प्राण के साथ इसकी अनुभूति होना ही जीवन मुक्ति है, अनेक अर्थो में जीवन मुक्ति से श्रेष्ठ है, बीज से बृक्ष का प्रफुटन ओर दूध से मक्खन का अवतरण सत्य की भांति सहज है, सरल है, सहज होना ही समत्व से जुड़ना है, ओर सरल होना ही आत्मबोध को उपलब्ध होना, जितना ही हम अपेक्षाओं, तुलनाओ ओर snklpv- विकल्पओं से मुक्त होते जाएंगे उतनाही हमारा जीवन जातिलताओं से विर्कत्त होगा, स्वाभिविक रूप से स्वशों का अंदर जाना बहार आना भी प्राणायाम ही है,इसमें कुम्भक – रेचक जिस समूह गति से होता रहता है,जमे उसका ज्ञान नहीं होता जो स्वाभिविक है, वही सहज है, ओर जो सहज है, सरल है, जो सरल है, वही निर्मल है, सत्य में ये तीन गुण अंतनिहित हैं,इसीलिए वह प्रम तत्त्व ही परमात्मा है।
अत्यंव प्रमात्मा को पाया नहीं महसूस किया जाता है, इस अनुभव के द्वारा ही उसको उपलब्ध हुआ जाता है, जिस प्रकार बीज से सहज विकसित होने के लिए, उपजाऊ भूमि, जल,वायु, ओर सूर्य के तापमान की जरूरत होती है, उसी प्रकार साधक को सहज आत्मज्ञान प्राप्ति के लिये सहज साधना मार्ग संकल्पशक्ति का जल विघ्ननो को उड़ा लेजाने वाली वायु की भांति गुरु कृपा तथा लक्ष्यप्रप्ति की दृढ़ता सूर्य के तप की भांति अपरिहार्य आवश्यकताए हैं, जिस प्रकार से अस्तित्व का लक्ष्य है, बृक्ष को भी नर के जीवन का कर्तव्य है, नारायण को उपलब्ध होना बीज के अंदर एक विराट बृक्ष छुपा है, प्र इसका पता उसे तब लगता है, ज़ब वह अपनी चेतना को अंतरमुक्खी क़र धरती की गुफा में एकाग्रचित हो क़र बाहर की दुनिया से अपने को असमर्पित मुक्त क़र लेता है, इसीलिए प्रकार ज़ब अपने मन को बाहर से बिमुख क़र अंदर की ओर मोड़ते हैं, तभी हमारी यात्रा से मिलने ओर परमात्मतत्व से जुड़ने की शुरुवात होती है, संसार के अभाव की नहीं भाव के लिये तिरो भाव की अवस्था का नाम है, आत्मा प्रमात्मा, सत्यप्रमात्मा, संसार समाधी का स्वप्न है,ओर जागरण का आसमान सत्य,एवं सत्य किसी रूप व स्थति में उपेक्षणीय नहीं है,ओर उसे नकारा जाना भी सम्भव नहीं है, बीज के अंदर छुपा बृक्ष, दूध के अंदर छुपा मक्खन ओर मन के अंदर अत्यंत आवतरस्थ में छुपा प्रमात्मा यदि सत्य है,तो बीज, दूध,मन,असत्य कैसे।