प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल। हिंदी हैं हम उत्तराखंडी साहित्यकारों ने हिंदी की जगाई अलख जिसमें डॉ.पितांबर दत्त बड़थ्वाल ने एक अलग पहचान बनाई इनका जन्म लैन्सडाऊन के निकटवर्ती कौड़ियाला पट्टी के पाली गांव में 1901 में हुआ।
भक्तिकाल के साहित्य में जितना महत्वपूर्ण स्थान सगुण भक्ति साहित्य का रहा है उतना ही महत्वपूर्ण स्थान निर्गुण साहित्य का भी है, निर्गुण संत साहित्य ने अपनी अनूठी जगह बनायी है।
निर्गुण संत साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जिसके कारण जन भाषा हिंदी के माध्यम से आत्मपरक भक्ति को स्थापित हुई है,जिसमें ईश्वर के निराकार स्वरूप को स्थापित कर उसका गुणगान किया गया, इस साहित्य के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों, विषमताओं, भेदभावों आदि के विरुद्ध सामाजिक चेतना का विस्तार हुआ।
भक्तिकाल के पूर्व जब शूद्रों का और श्रमजीवी जातियों का मंदिर में प्रवेश वर्जित कर दिया गया और विशेष वर्ग प्रभाव था, उसे कल के निर्गुण संतों ने सगुणोपासना के समानान्तर कहा कि तुम्हारे ईश्वर मर्यादा पुरुषोत्तम राम है तो मेरे भी आराध्य आत्माराम है, जो भीतर काया में विराजित है, आपके इष्ट मंदिर में है तो हमारे इस्ट सर्वभूतों है में व्याप्त है, सर्वज्ञ हैं, सकल ब्रह्मांड में है जिसे अनादि अलख, निरंजन, सत्पुरुष कहा गया, हिंदी साहित्य के इतिहासवेत्ता प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस संत साहित्य की भाषा को सधुक्कड़ी,बेमेल, खिचड़ी कहकर सिरे से नकार दिया, तब इस स्थिति में पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने निर्गुण संत साहित्य को हिंदी साहित्य में स्थापित किया।
निर्गुण संत साहित्य में निर्गुण ईश्वर की उपासना, गुरु की महत्ता, अवतारवाद का विरोध, रूढियों और आडंबरों पर प्रहार, रहस्यवाद, वर्ण व्यवस्था का विरोध, हठयोग का बल, प्रतीकों और उलटबासियों का प्रयोग, सत्संग, भजन तथा नाम स्मरण, विरह की मार्मिक उक्तियां, नारी व माया,सूफ़ीमत का प्रभाव,मूर्तिपूजा का खंडन, अंतर साधना पर बल इत्यादि प्रमुख विशेषताएं हैं, जिन पर संपूर्ण निर्गुण संत साहित्य आधृत है। यह कहा जा सकता है कि निर्गुण साहित्य के बिना हिंदी भक्ति साहित्य का स्वरूप चिंतन अधूरा हो सकता है।
निर्गुण संप्रदाय के समस्त संतो उनकी बानियों और उनके समाज सापेक्ष स्वरूप को चुनौतियां को स्वीकार करने हुए बाबू श्याम सुंदरदास के निर्देशन में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से 1933 में डॉ.पितांबर दत्त बड़थ्वाल ने प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर ध्रुव के चुनौती को स्वीकार करते हुए, अपना डि.लिट, शोध प्रबंध प्रस्तुत किया। शोध प्रबंध जिन प्रशिक्षकों के यहां गई उनमें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के टी.ग्राहम बेली अध्यक्ष उर्दू विभाग, आर.राना.डे अध्यक्ष दर्शनशास्त्र प्रयाग विश्वविद्यालय ने पशिक्षक के दायित्व को पूर्ण करते हुए शोध प्रबंधन की भूरी भूरी प्रशंसा की।
डॉक्टर पितांबर दत्त बड़थ्वाल ने अपने शोध प्रबंध को पांच अध्यायों में प्रस्तुत किया वह इस प्रकार है-प्रथम अध्याय निर्गुण संतों का समय और उनकी आवश्यकता, द्वितीय अध्याय निर्गुण संतों का दर्शन, तृतीय अध्याय निर्गुण संप्रदाय, चतुर्थ अध्याय निर्गुण संप्रदाय की प्रवृत्ति, पंचम अध्याय अनुभव।
पांचवें अध्याय को डॉ.पितांबर दत्त बड़थ्वाल ने दो उप अध्यायों मैं विभाजित कर लेखन को गति दी है।
क-सत्य की अवधारणा,1- निर्गुण वाणी और कविता,2- ईश्वरीय प्रेम के प्रतीक,3- उलटबासियां,
ख- निर्गुण संप्रदाय के अनुयायी,
आपने इस अनुसंधान में उन्होंने अज्ञात एवं अल्पज्ञात निर्गुण संतो व उनके साहित्य को वर्णित किया, कबीर, नानक, दादू, प्राणनाथ, बाबा लाल, मलूकदास, दिन दरवेश, यारी साहेब, जगजीवन दास (द्वितीय), पलूट साहब, धरणीदास, दरिया साहब, बुल्ले शाह, शिवनारायण, तुलसी साहिबद, शिवदयाल इत्यादि का परिचय उनकी बानियां और उनके साधनात्मक उद्देश्यों का निरूपण तत्संबंधी शोध में विस्तृत रूप से किया है। यद्यपि उसे समय हिंदी के यह शोध प्रबंध अंग्रेजी में प्रस्तुत हुआ और कालांतर में इसका अनुवाद डॉ.पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने अपने जीवन कल में तीन अध्याय कर चुके थे, जो नागरीप्रचारिणी सभा की पत्रिका में क्रमशः छपती रही, दुर्भाग्य से इसका अनुवाद उनके जीवन काल में पूर्ण नहीं हो सका, शेष अध्याय का अनुवाद आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने संवत 2007 में किया और इसी वर्ष डॉ. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल के प्रिय शिष्य भगीरथ मिश्र ने इसे संपादित कर प्रकाशित भी कराया।
डॉ.पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने संतों के तात्कालिक परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उनके विचार तथा अछूतों व शूद्रों का उद्घाटन तथा निर्गुण संतों की पृष्ठभूमि को वर्णित किया है। अनुसंधान के प्रारंभ करने की प्रस्तुति में उन्होंने अलकुरान सिद्धांत, तारीक-ए-फिरोजशाही, तौबकाने नीसिरी, इंडियन एंटीक्वेरी,गोरखबानी, आदि ग्रंथों की सहायता लेकर उन्होंने निर्गुण संप्रदाय की पृष्ठभूमि और शुद्रोद्धार विषयक स्थापना किया। जिसका परिणाम जाति व धर्म के विभेद को दूर करती हुई आत्मा और परमात्मा के एकीकरण पर आश्रित था। जबकि जो सर्वविदित है कि वास्तविक पंडित विद्वान विनय संपन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और स्वपाकी (चांडाल) में कोई भेद नहीं समझता।
विद्या विनय संपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी।
सुनी चैव स्वपाके च पंडित: समदशिंत।।
डॉ.पितांबर दत्त बड़थ्वाल ने स्वामी रामानंद और कबीर के संदर्भ में यह स्थापना की है कि दृष्टि स्पर्श से भोजन को आखाद नहीं माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में कबीर की उपज नए निर्गुणवाद परिपूरित होकर सामाजिक व्यवहार और पारमार्थिक साधना में एकरूपता स्थापित करनी है, जो डॉ.बड़थ्वाल के अनुसंधान दृष्टि की नयी उद्भावना है, डॉ.बड़थ्वाल ने निर्गुण संप्रदाय के दार्शनिक सिद्धांत की विवेचना एकेश्वर रूप में प्रतिपादित करते हुए लेकर कार्य किया, इसमें उन्होंने कबीर, चरणदास, नानक, दादू जैसे निर्गुनी संतों की बानियों को आधार मानकर एकेश्वर की पूर्णता को प्रतिपादित किया है।
अर्थात पूर्ण सत्य की एकता ही एकेश्वर की स्थापना को स्थापित करती है लेकिन सर्वत्र परमात्मा का दर्शन ही व्यापकता का सूचक नहीं होता, उनके व्यापक रूप एवं नाम की परम तत्व से सम्मिलित कर देखने में दृष्टिपात किया जाना चाहिए न की नकारात्मकता का अनुसरण किया जाना चाहिए, परमात्मा के संदर्भ में कबीर ने यह भी कहा है कि चारों वेद परमात्मा का यशोगान करते हैं, जीवो का भले ही वास्तविक लाभ होता नहीं दिखाई देता है लेकिन भटकता हुआ जीव अवश्य लूटता हुआ दिखाई देता है।