प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल। मैं बात कर रहा हूं पहाड़ी घट् की जिसे आप पनचक्की अर्थात पानी से चलने वाली चक्की कह सकते हैं। वैसे इन्हें घराट के नाम से भी पुकारते हैं।
जब पहाड़ के गावों में बिजली नहीं पहुंची थी और ना ही डीजल इंजन से भक्क भक्क की आवाज करती चक्कियां ही चलती थीं तो उस समय ये घट् पहाड़ी जीवन की आधार शिला हुआ करते थे।
कुछ कुछ गावों में आज भी इनके अवशेष मात्र देखे जा सकते हैं।
जो घराट नदियों के किनारे स्थित होते थे वे बारामासी चलते थे लेकिन जो गधेरों के किनारे बनाए जाते थे वे वर्षाकाल में प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध होने पर ही चलते थे।
गेहूं अनाज पीसने का एक मात्र साधन उस समय घट् ही होता था।लेकिन यदि आप घट् का मूल्यांकन केवल पिसाई स्थली के रूप में करेंगे तो गच्चा खा जाएंगे।
वस्तुत: घट् को आप अनेक प्रकार की भावनाओं,संवेदनाओं व उद्वेगों की हृदय स्थली कह सकते हैं।
जिन लोगों ने पहाड़ केवल पिक्चर,पोस्टर व कलैण्डर में देखे हैं अर्थात जिन्हें अपनी भौतिक आंखों से पहाड़ का व पहाड़ के गावों का साक्षात्कार करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है उनसे मैं यही अनुरोध करूंगा कि वे अपने द्वारा देखे गए पहाड़ी स्थल के किसी ऐसे दृश्य को याद करें जिसमें पर्वतों की गोद का आकर्षक चित्र उकेरा गया हो,जिसमें घाटी में बहती कोई छोटी सी सुंदर स्थानीय निर्झरणी चित्रांकित की गयी हो तथा निर्झरणी के तट के समीप कोई झोपड़ी सी बनी हो।
यदि आपने किसी भी पोस्टर या पेंटिग में यह चित्र देखा है तो आप समझ लीजिए कि वह सुंदर सी आकर्षक झोपड़ी ही घट् है।
तो जैसा कि मैंने बताया कि जब पहाड़ी गांव में बिजली नहीं पहुंची थी उस समय पानी से चलने वाली पनचक्की यानि कि घट् ही अनाज पीसने का काम करते थे।
घट् के संदर्भ में सबसे पहली बात यही थी कि इसकी स्थापना किसी स्थानीय निर्झरणी,गधेरे या पानी के श्रोत के पास की जाती थी।अर्थात इसका प्राकृतिक भू दृश्य बहुत ही सुंदर होता था।
आश्चर्य की बात है कि हमारे पुरखों ने जल शक्ति के उपयोग की उच्च स्तरीय तकनीकि अपने तरीके से विकसित कर ली थी।प्रवाहित हो रहे जल की गतिज ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में रूपांतरित करने का प्राचीनतम श्रेष्ठ उदाहरण देखना हो तो आप पहाड़ के किसी गांव में पुराने घट् के पास पहुंच जाइए।
बिना किसी औद्योगिकी या प्राद्यौगिकी संस्थान में प्रशिक्षण लिए ही उन कुशल कारीगरों ने हाइड्रोलिक्स,डायनामिक्स व मैकेनिकल इंजनिअरिंग का समन्वय कर जो घट् तकनीकि विकसित की है वह नि:संदेह अद्वितीय है।
घट् निर्माण योजना का प्रथम चरण किसी निर्झरणी की पानी की धारा को छोटी पतली नहर(जिसे स्थानीय भाषा में गूल कहते हैं) में बहाते हुए घट् के उस भाग में पहुंचाना होता था जहां पर लकड़ी की टरबाइन चरखा व्यवस्थित रहता था।
तेज गति से पड़ने वाली जल धार उस चक्के को घुमाती,उन चक्कों से संयोजित पत्थर के एक पाट के ऊपर रखा दूसरा पाट घूमने लगता फिर जैसे ही झोले से रेडा़ में अनाज उंडेला जाता तो उसके पत्ते जैसे चरखडे़ एक निश्चित पुनरावृत्ति में खुलते व बंद होते परिणामत: गेहूं के दाने नियमित व नियंत्रित रूप से दोनों पाटों के बीच बने गोलाकार छेद से होते हुए पिसने लगते।
पाटों के चलते रहने से दाने घिस कर चूर्ण में परिवर्तित होने लगते।
पिसाई के लिए घट् जाना हमारे विद्यार्थी जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होता था।
गुरु ने गृह कार्य करने को दिया,कोई पाठ याद करने को कहा या कोई भी पढ़ने लिखने का काम दिया और हमने नहीं किया जो कि हम सहपाठियों के साथ खेलकूद व मौज मस्ती करने में हम अक्सर भूल ही जाते थे।
अगले दिन गुरु जी ने छड़ी उठाते हुए गरजदार आवाज में पूछा खड़े हो जा फलाने के।उन दिनों हमारे पिता या दादा का नाम लेकर संबोधित करते थे।
कल का दिया काम किया,हम तुरंत भावुक शब्दों में उत्तर देते गुरु जी घर में आटा बिल्कुल नहीं था मां जी ने घट् भेज दिया मुझे पिसाई के लिए।
तो ऐसे आड़े वक्त में घट् हमारा रक्षा कवच बन जाता था।
दरसल घट् की चक्की अत्यंत धीमी गति से पिसाई करती थी।अत: प्राय: हम वहां अनाज के थैले लेकर शाम को चले जाते तथा रात भर पिसाई करते व अगले दिन वापस लौटते।
यह प्रक्रिया हमारे बाल्यकाल का रोचक हिस्सा होता था।पहले से तय हो जाता कि अमुक दिन फलाने फलाने परिवार का थैला पिसने जाएगा।
हम उत्साहित रहते कि हमारा नबंर कब आएगा।बारी आने पर अपने प्रिय साथी को सूचित कर देते उस दिन घट् चलना है तू तैयार रहना वह भी अपने घर में घट् के लिए अनाज रखवा लेता।
यूं समझ लीजिए हमारे ग्रामीण जीवन की पिकनिक स्थली होता था घट्।वहां जाकर निर्जन स्थान के स्वच्छंद वातावरण में रात्रि व्यतीत करने की कल्पना से हम रोमांचित हो जाते।
घट् के पास पत्थरों को जमा कर आग सुलगाना,उन पत्थरों को तंदूरी चूल्हे के रूप में प्रयोग करके पहाड़ी तंदूरी रोटी ढुंगलों को तैयार करना,घर से लायी गयी प्याज,मिर्च,नमक,व अमिया से चटनी बनाना फिर माळू के पत्तो को डिस्पोजल प्लेट के रूप में प्रयोग करते हुए उस नैसर्गिक सुरम्य वातावरण में चटपटा भोजन करना रोमांचकारी छण होता। समीप ही बह रही निर्झरणी की कल कल ध्वनि,गूल के पानी कुल कुल,शांत नीरव परिवेश निस्तब्ध रात्रि प्रहर में गूंजती घराट की घर्र घर्र चर्र चर्र की ध्वनियों के साथ तादम्य स्थापित कर रात व्यतीत करना आज के किसी पर्यटक स्थल की कैम्पिंग का सा दृश्य होता।
चूंकि पहाड़ी गांवों में मृतकों के अंतिम संस्कार गधेरों,नदियों के किनारे ही किये जाते हैं तथा घट् इन्हीं स्थानों के आसपास स्थित होते थे अत:घट् में भूत,प्रेत, खबेस से संबंधित अनेक कहानियां प्रचलित रहती थीं।
इस लिए घट् में पिसाई के लिए रात बिताने पर ऐसे कई डरावने किस्सों को याद करना अथवा दोहराना बदन में झुरझुरी उत्पन्न कर देता था।
इसके अतिरिक्त इन्हीं घराटों में अनेक प्रेम कहानियों ने भी जन्म लिया है।साथ ही अन्य गावों के बड़े बुजुर्ग जब पिसाई के लिए इन घराटों में आते तो परस्पर चर्चा के दौरान घर परिवारों की बातें होतीं तो लड़के या लड़कियों की शादी के लिए प्रस्ताव रखे जाते।
इन घराटों में रात्रि व्यतीत होने की अवधि में अनेक परिवारों के रिश्ते जुड़े हैं।
और शादी की बात पक्की होने पर तो बारातियों व मेहमानों के लिए घट् में बहुत सारा अनाज पीसने के लिए लाना होता तो कई दिन व रात यहां बिताने पड़ते।
तब घट् उत्सव का माध्यम बन जाते।
कुल मिलाकर घट्
हमारे लोक जीवन का महत्वपूर्ण अवयव हुआ करता था।प्रकृति,प्राकृतिक श्रोत,प्राकृतिक संसाधन का सदुपयोग,प्रकृति का सानिध्य व प्राकृतिक जीवन शैली में हम प्रकस्थित थे वहां कृत्रिमता,दिखावट,प्रतिस्पर्द्धा के लिए कोई स्थान न था। समन्वय सामूहिकता व सरलता जैसे सद्भावों का माध्यम होते थे घट्।
अब तो गांव गांव में बिजली की चक्कियां हो गयी हैं,या सड़क आ पहुंची है जीप बस में बैठो आस पास के बाजार से पिसा कर ले आओ ।
कड़वी सच्चाई तो यह है कि खेती कौन करे,मेहनत कौन करे,गेहूं कौन उगाए सीधे जाओ और पिसा हुआ आटा शक्ति भोग,गिन्नी,आशीवार्द,अन्नपूर्णा,पतंजलि या कोई और ब्राण्ड ले आओ।
ऐसे में घट् की कौन सुध ले।तेज रफ्तार जिंदगी ने धीमी गति के घट् को पूर्णत:उपेक्षित कर दिया है।समाप्त हो गयी है घट् की उपयोगिता।जल की गतिज ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में रूपांतरित करने वाली वह संयत्र स्थली घट् अब अवशेषों में रह गयी है।
नीरज नैथानी