गबर सिंह भंडारी श्रीनगर गढ़वाल
वो हमारे गांव का पंधेराप्रथम किश्त-लेखक कविराज नीरज नैथानी
हमारे गांव मे कभी एक पंधेरा(जहां प्राकृतिक श्रोत से बहने वाली पानी की अविरल धारा बहती है) हुआ करता था।हुआ करता था मतलब अब उसका अस्तित्व लगभग समाप्ति की ओर है।
आज से पैतीस चालीस साल पहले तक उस पंधेरे में मोटी जलधारा बहती थी।उसे मैं जलधारा के स्थान पर अमृतधारा कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
अहा, क्या मीठा पानी था उस पंधेरे का। पीते ही जिह्वा,कंठ,हृदय,तन,मन,मस्तिष्क,रोम रोम सभी कुछ पूर्णत:प्रफुल्लित हो जाता था।
उसकी एक विशेषता और थी वह सर्दियों में गुनगुना लगता था।
ऐसा गुनगुना कि किसी सोलर पैनल ने उसकी ठंडक को मार कर कड़ाके की शीत में भी नहाने धोने लायक बना दिया हो।
दिसंबर जनवरी की ठंड में भी हमारे गांव वाले उसके नीचे बैठकर आराम से नहाया करते थे।उसकी चौड़ी व मोटी धार पल भर में पूरे देह को समतापित कर दिया करती थी।
जैसे कि आपने महसूस किया होगा कि यदि आप सर्दियों में बाल्टी से किसी छोटे मग में पानी निकालकर बदन पर पानी डालें तो शीत जल की थोड़ी मात्रा पूरे बदन में झुरझुरी करती है।
और उसके स्थान पर यदि आप झम्म से पूरी बाल्टी अपने ऊपर उड़ेल दो तो एक झटके के बाद ठण्ड बिल्कुल नहीं लगती है।
तो जनाब वैसा ही था हमारे गांव का पंधेरा।
कितनी भी ठण्ड हो आपने जरा सी हिम्मत दिखाकर कपड़े उतारे व उसके नीचे झप्पाक से बैठ गए तो उसकी चौड़ी धार पल भर में आपको संतुलित कर देने का माद्दा रखती थी।
और गर्मियों में,आह क्या कहने जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि इतना शीतल जल जैसे कोई मीठा पेय । कितनी भी प्रचण्ड गर्मी हो आप उसके नीचे नहाने बैठे नहीं कि वह तत्काल असीम तृप्ति का एहसास कराने लगता।
गांव वालों की सेहत दुरस्त रहे लिहाजा ऋतुओं के हिसाब से मिजाज बदलने का हुनर आता था साहब उस पंधेरे को।
हमारे पुरखे उसे देवता मानते थे।पूजा होती थी उस पंधेरे की।
गांव में जब कोई नयी दुल्हन ब्याहकर आती थी तो उसे पहले पंधेरे में ले जाकर वंदन करवाते थे।
वह धूप बत्ती जलाकरअपने मेहंदी लगे हाथों व रंगीन चूड़ियों से भरी कलाइयों को खनकाते हुए पंधेरे के मुख पर लाल धागा कलेवा बांधती,रोली चंदन का टीका लगाती तथा लड्डू रखती।
उस समय पास में लड्डू मिलने की आस में खड़े बच्चों की आंख में विशेष चमक देखी जा सकती थी।जब बच्चों को लड्डू दिया जाता तो वे लपक कर खाते।
फिर दुल्हन पंधेरे को नमन वंदन करते हुए नयी गागर को धोकर भरती तथा सिर पर कपड़े का गोल बीड़ा बनाकर उसके ऊपर गागर रखती।गागर के ऊपर कलेवा बंधा जल से भरा लोटा भी रखा जाता।
वहां से घर तक पानी लेकर आना जलोत्सव सा होता तथा इस आयोजन के केंद्र में यह जलधारा ही होता।
पंधेरे के चौक को पवित्र स्थल माना जाता था।वहां शौच करना,मल मूत्र त्याग करना नैतिक वर्जना के अंतर्गत आता था।
अच्छा एक बात बताऊं वह केवल पानी भरने,नहाने धोने की स्थली मात्र नहीं था।
विवाहित स्त्रियां जंगल से लकड़ी घास काटकर बड़े बड़े गठ्ठर कांधे पर लाद कर लातीं तो उस पंधेरे के पास ही दीवार पर उतारतीं।
पंधेरा उनकी थकान को दूर से ही समझ लेता।फिर मानो कह रहा हो आओ मेरे पास आओ मेरी चंद छींटे ही तुम्हारी थकावट को पल भर में दूर कर देंगी।
और जब वे उसके नीचे हाथ मुंह धोती पादों का पृच्छालन करतीं तो उसकी जलधार जादू की माफिक असर दिखातीं।
ना जाने उनकी थकान कहां दूर भाग जाती।वे असीम तृप्ति का एहसास करतीं।
फिर वे पास के पत्थर पर बैठकर एक दूसरी सहेली से अपने सुख दुख बांटती।
खूब चूहुलबाजी भी करतीं वे आपस में मसलन आजकल तेरा मालिक घर आया हुआ है—–खूब लाल दिख रही है—–गाल क्या बने हुए हैं सेब जैसे—–वह चिकोटी काटते हुए कहती,चल हट्ट बेशर्म कहीं की वह प्यार भरा उलाहना देती मानो पंधेरा सब सुन रहा हो।
खिलती हुयी जलधारा भी नीचे तड़तड़ गिरते हुए कहने लगती मैंने सब सुन लिया तब वह नवयौवना संकोच से और मादक लगने लगती।
दूसरी युवती कहती मेरा तो पिछले छ:महीने से परदेश ही है।वियोग की अग्नि का तब इसी पंधेरे की जलधारा से शमन होता।
कोई सास की ज्यादतियों का जिक्र करती है तो कोई अपनी गरीबी,लाचारी की व्यथा सुनाती तो कोई बताती कि बहुत दिनों से मायका जाना नहीं हुआ,तो कोई अपनी व्याधि बीमारी की पीड़ा सुनाती।
उस समय यह पंधेरा पीड़ाओं, दर्द व समस्त वेदनाओं को अपनी शीतल धारा के मरहम से सकून देता। गांव वालों की आयु वर्ग के संदर्भ में पंधेरे की ठांव विचित्र ढंग सेअलग अलग होती।
यानि कि बच्चों,नवयुवतियों,विवाहिताओं,वृद्धाओं,युवाओं व बूढ़ों सभी के लिए भिन्न भिन्न।
आप इसे इस तरह समझ सकते हैं कि जब बच्चे इसके पास आते तो यह पंधेरा उनके लिए जलक्रीड़ा स्थली बन जाता।
बच्चे इसकी जलधारा के नीचे नहाते,उछलते,कूदते ,खिलखिलाते ,एक दूसरे को भिगोते,खूब मौज मस्ती करते।
इसके नीचे बैठते तो उठने का नाम ही ना लेते।वे तब तक ना हटते जब तक पानी भरने आयी महिलाएं इन्हें डांटकर भगा नहीं देती कि चलो, हटो पानी भरने दो, हमें देर हो रही है।
महिलाएं अपने बंठे(पानी भरने की पीतल या तांबे की गागर) को अंदर बाहर मिट्टी से रगड़ रगड़ कर जब इसकी धार के नीचे धोने को रखतीं तो वे ऐसे चमकने लगते कि मानों अभी दुकान से नये नये खरीदकर लाए गए हों।
कहने का आशय यह है कि महिलाओं का मिट्टी से बंठे को रगड़ कर साफ करने के श्रम के बराबर या उससे कहीं अधिक की भूमिका पंधेरे की जबरदस्त धार की होती जो उसके पोर पोर पर पड़कर इसके एक एक बिंदु को सोने जैसा चमका देता।
और गजब कि बात पानी भरने के बहाने वे महिलाएं भी तब तक उसकी जलधारा के सानिध्य में परस्पर गपशप मारती रहतीं जब गांव का कोई बुजुर्ग खंखार कर उन्हें सचेत नहीं करता कि अब हटो भी मुझे हाथ मुंह धोना है भई।
बूढ़े बुजुर्ग उस पंधेरे की शीतल धार में मुंह छप छपाकर नौजवान हो जाते।वह उनके लिए संजीवनी का काम करता।जब वे अपने हाथ पैरों को उसकी धार के नीचे भिगोते तो उनके संपूर्ण शरीर में रक्त का संचार तीब्र हो जाता। वे नयी स्फूर्ति से भर जाते और युवाओं पर तो वह पंधेरा विशेष प्यार उड़ेलता।
आज से पैंतीस चालीस साल पहले पहाड़ी गांव में अधिकांश परिवार किसी भी प्रकार से समृद्ध कतई नहीं कहे जा सकते थे।
उस समय सक्षम परिवार के लड़के जब सुबह हाथ मुंह धोने इस पंधेरे में आते तो कागज की पुड़िया में लाल दंत मंजन लाते।गरीब घरों के लड़के कोयले या टिमरू से दतून करते।
लड़कों का कोई दोस्त जो हाल ही में फौज मे भरती हुआ था जब छुट्टियों में घर आता तो उसके दोस्त अक्सर उसके साथ नहाने पंधेरे में आते।
तब वह फौजी भाई पंधेरे के पास की दीवार में जब अपना नया रंगबिरंगा तौलिया व उसके बगल में लाइफ ब्वाय साबुन कॉलगेट पेस्ट तथा टूथ ब्रश रखता तो सबका जी ललचाता।
एक तरीके से उसक यह सारा सामान समृद्धि का प्रतीक लगता था।
मैं उस समय की बात कर रहा हूं जब अधिकांश घरों में तौलिए होते ही नहीं थे। हमारे जेसे हम उम्र तो पंधेरे में नहाए धोए व फटाफट आंख बंद कर कपड़े बदल लिए।हमारी आंखें बंद होने का मतलब हमें किसी ने नहीं देखा होगा जैसी अनुभूति कराता था।
साबुन से नहाना अमीरी की निशानी थी।ऐसे में वह फौजी दोस्त अपने आप तो ब्रश में कालगेट लगाकर पेस्ट करता व हमारे दाएं हाथ की दूसरी उंगली में जरा सा लगाकर देता।
तब उस पेस्ट की सुगंध हमारे नथुनों मे भर जाती व दातों पर पेस्ट वाली उंगली रगड़ते ही हम मीठी मीठी पिपरमिंट जैसी झनझनाहट महसूस करते।कुल्ला करते समय मन करता कि थोड़ा सा इसका स्वाद गले के नीचे उतर जाता तो कितना अच्छा होता।
और साबुन अगर उसने हमें लाइफ ब्वाय लगाने को दे दिया तो कहने ही क्या।
ट्रांजिस्टर पर सुना गया विज्ञापन लाइफ ब्वाय है जहां तंदुरस्ती है वहां हमें साबुन से नहाने की गर्वोक्ति का एहसास कराता।
हांलाकि वह दोस्त हमारी खुशी को ज्यादा देर कायम ना रहने देता कल भी नहाना है सारा आज ही रगड़ देगा क्या कहते हुए वह साबुन लगभग छीनने के अंदाज में झपट कर साबुनदानी में कैद कर देता।
सच बताऊं तो उसका यह जालिम पना हमें कतई अच्छा नहीं लगता लेकिन अगले दिन भी खुशबूदार साबुन लगाने को मिलेगा हम यह सोचते हुए मन को तसल्ली देते।
नीरज नैथानी लेखक कविराज श्रीनगर गढ़वाल