भोपाल : मध्यप्रदेश शासन ने श्री महाकाल महाराज विकास योजना में एक विशाल और भव्य‘महाकाल लोक का निर्माण कराया है। यह महाकाल लोक न केवल अत्यन्त भव्य और दिव्य है अपितु समूचे महाकाल परिसर को एक नूतन आभा प्रदान करता है। इसके निर्माण में उज्जयिनी की पूरी सांस्कृतिक विरासत की झलक हमें मिलती है। इसके कारण उज्जैन में और मध्यप्रदेश में पर्यटन की बहुत संभावनाएँ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ जायेंगी। यों एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में उज्जैन नगर की पहचान पहले से सारे विश्व में है किन्तु इस महाकाल लोक के निर्माण से वह और भी विश्व के आकर्षण का केन्द्र बनेगी और पूरे प्रदेश को एक नई पहचान देगी।
अब हम आते हैं उज्जयिनी के प्राचीन गौरव एवं इतिहास पर। उज्जयिनी – पृथ्वी लोक के अधिष्ठाता भगवान महाकाल द्वारा अधिष्ठित नगरी, पावन क्षिप्रा के तट पर अवस्थित यह पुराण प्रसिद्ध नगरी, पृथ्वी के नाभि-स्थल पर स्थित हजारों वर्षों से विश्व की सभ्यताओं के आकर्षण का केन्द्र रही है। सभ्यता और संस्कृति की अनेक धाराओं का संगम उज्जयिनी में था, चाहे वह व्यापार-व्यवसाय की धारा हो अथवा विभिन्न धर्मों की धारा हो या विश्व की विभिन्न संस्कृतियों की। सच में यह पृथ्वी का केन्द्र स्थल है, क्योंकि यहाँ से एक ओर पूर्व से पश्चिम जाने वाली कर्क रेखा गुज़रती थी तो उत्तर में सुमेरू से लंका तक जाने वाली शून्य रेखा भी उज्जयिनी से होकर ही गुज़रती थी। इसलिये पुराणों में उज्जयिनी को शरीर के आठ चक्रों में से मध्य चक्र मणिपुर में अवस्थित बताया गया है।
आज्ञाचक्रं स्मृता काशी या बाला श्रुतिमूर्धनि
स्वाधिष्ठानं स्मृता कांची मणिपूरमवन्तिका
नाभिदेशे महाकाल स्तन्नाम्ना तत्र वै हरः (वाराहपुराण)
सूर्य सिद्धान्त सिद्धान्त शिरोमणि तथा पंचसिद्धांतिका – ज्योतिष के तीनों प्रसिद्ध ग्रंथों में उज्जयिनी को पृथ्वी के नाभि-स्थल पर अवस्थित बताया गया है। सूर्य सिद्धान्त के अनुवादक प्रसिद्ध विद्वान् ई. बर्जेस ने लिखा है कि उज्जैन नगरी की स्थिति ने इसको विश्व के प्रमुख रेखांश पर (prime meridian) अवस्थित बताया है। जो गौरव आज ग्रीनविच को मिला है, वही गौरव प्राचीन काल में उज्जयिनी को प्राप्त था। भारतीय सिद्धान्त ज्योतिष के अनुसार ग्रहों की गणना अभी भी उज्जैन मध्य रात्रि के आधार पर की जाती है। बर्जेस ने लिखा है कि ‘उज्जयिनी समृद्ध मालवा प्रान्त की राजधानी रहा है तथा अत्यन्त प्राचीन समय से भारतीय साहित्य, विज्ञान और कलाओं का केन्द्र रहा है। भारतवर्ष के सभी सांस्कृतिक केन्द्रों में से यह प्रसिद्ध समुद्री रास्ते के अत्यन्त समीप था और इसलिये ईसा की प्रारंभिक शदियों में अलेक्जेड्रिंया तथा रोम से भारतीय व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। विश्व सभ्यता का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र होने के कारण यहाँ पर भारत के अनेक प्रान्तों के सिक्के मिले हैं। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी अत्यन्त स्पृहा और स्नेहिल वाणी के साथ अपनी एक कविता में उज्जैन का स्मरण किया है।
दूर बहुत दूर ….
स्वप्न-लोक में उज्जयिनी-पुरी में
खोजने गया था कभी शिप्रा-नदी के पार,
अपनी पूर्व-जन्म की पहली प्रिया को
मुख पर थी उसके लोघ्र-रेणु, लीला-पद्म हाथ में,
कर्ण-मूल में कुन्द-कली, कुरूबक माथे पर।
तनु देह पर रक्ताम्बर बांधा था नीवीबन्ध पर
चरणों में नूपुर बजते थे रह-रह कर
बसन्त के दिन
फिरा था दूर-दूर पहचाने पथों पर
जब हम इसके इतिहास पर जाते हैं तो महाभारत में यह अपने पूर्ण गौरव के साथ उपस्थित है। विन्द और अरविन्द नाम के राजा महाभारत काल में अवन्ती पर राज करते थे, जिन्होंने उस महासमर में कौरवों की तरफ से युद्ध किया। उनकी एक बहन मित्रवृन्दा थी, जो भगवान कृष्ण की पटरानियों में से एक बनी।
कालिदास ने अत्यन्त रमणीय शब्दों में भगवान महाकाल और इस सुन्दर नगरी का वर्णन किया है। मेघदूत में वे अपने मेघ को निर्देश देते हैं कि यद्यपि तुम्हारा मार्ग वक्र होने से कुछ लम्बा हो जायेगा किन्तु उज्जयिनी नगरी का अवलोकन अवश्य करना। उज्जयिनी नगरी को देखकर ऐसा लगता है मानों स्वर्ग में अवस्थित पुण्यात्मा जन पृथ्वी पर स्वर्ग के ही एक दीप्तिमान खण्ड लेकर आ हो गये हों –
स्वल्पीभूते सुचरितफले स्वर्गिणां गां गतानां
शेषैः पुण्यैर्हृतमिव दिवः कान्तिमत् खण्डमेकम् (Meghaduta 1/30)
ब्रह्मपुराण तथा स्कन्दपुराण ने उज्जयिनी का अत्यन्त विस्तृत और मनोहारी दृश्य प्रस्तुत किया है।
यह महानगरी सुन्दर देवालयों से सुशोभित है तथा दृढ़ प्राकार और तोरणों से युक्त है। हृष्ट-पुष्ट स्त्री-पुरूषों से भरी हुई है। सुन्दर मार्ग तथा वीथियाँ हैं व सुविभक्त चौराहे हैं। यह अत्यन्त समृद्ध है तथा सभी शास्त्रों के ज्ञाता-विद्वानों से समलंकृत है। यही कारण रहा है कि इस नगरी के अनेक नाम पुराणों में प्रसिद्ध हो गये जैसे कनकश्रृंगा (जिसके कलश सोने के हों), पद्मावती, कुशस्थली, प्रतिकल्पा इत्यादि।
यहाँ धार्मिक सम्प्रदायों का संगम है। स्कंदपुराण के अवन्ती खण्ड में यह विवरण दिया गया है कि यहाँ पर चौरासी महादेव, आठ भैरव, एकादश रूद्र, द्वादश आदित्य, छह विनायक, चौबीस देवियाँ, दस विष्णु तथा नव नारायण विराजमान हैं। हिन्दू धर्म के तीनों प्रमुख सम्प्रदाय अर्थात् शैव, वैष्णव तथा शाक्तों के अतिरिक्त यह नगरी जैन तथा बौद्ध धर्म का भी महत्वपूर्ण केन्द्र रही है।
इसी प्रकार क्षिप्रा नदी का महत्व भी पवित्र गंगा, नर्मदा तथा गोदावरी नदियों के सदृश बताया गया है। यदि तीर्थयात्री एक बार भी इसके तट पर आकर स्नान कर ले तो क्षण भर में ही उसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है। यह नदी चन्द्रमा से उत्पन्न होने के कारण अमृत से भरपूर है और इसलिये सोमवती भी कहलाती है।
नास्ति वत्स महीपष्ठे शिप्रायाः सदृशी नदी।
यस्थास्तीरे क्षणान्मुक्तिः सकृदासेवितेन वै।।
उज्जयिनी का वास्तविक इतिहास छठी शताब्दी ईसा पूर्व से प्रारंभ होता है, जब चण्द्रप्रद्योत यहाँ का राजा था। उसकी पुत्री वासवदत्ता और वत्सराज उदयन की प्रेम कथाओं से यहाँ का जनमानस भलीभांति परिचित था, जिसका उल्लेख कालिदास ने भी अपने ‘मेघदूत’ में किया है। पुराणों के अनुसार वीतिहोत्र वंश के अंतिम राजा की हत्या पुनिक द्वारा की गई थी, जिसने अपने पुत्र प्रद्योत को यहाँ का राजा बनाया। उसके समय में उज्जयिनी अत्यन्त समृद्ध हुई और उसकी सत्ता का क्षेत्र बहुत व्यापक बना। मौर्यों के समय में जब चन्द्रगुप्त मौर्य सम्राट बना तब उसका पुत्र बिन्दुसार यहाँ का प्रान्तीय शासक था और जब बिन्दुसार ने सत्ता संभाली तब उसका पुत्र अशोक यहाँ प्रान्तपाल बना। उसके पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा की शिक्षा-दीक्षा उज्जयिनी में ही हुई और यहीं से वे बौद्ध धर्म का प्रसार करने हेतु लंका गये। शुंग वंश का राजा अग्निमित्र कालिदास के प्रसिद्ध नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ का नायक है। जो इसका प्रमाण है कि इस क्षेत्र में शुंग वंश का प्रभुत्व रहा। शुंगों पर विक्रमादित्य के पिता गर्दभिल्ल ने विजय प्राप्त की, जो शकों के द्वारा परास्त हुआ किन्तु उसके पुत्र विक्रमादित्य ने शकों को परास्त कर ईसा पूर्व पहली शताब्दी में यहाँ अपना प्रभुत्व स्थापित किया। महाराजा विक्रमादित्य अपने ऐश्वर्य, अति मानवीय पराक्रम, दानशीलता और न्यायप्रियता के कारण पूरे भारतवर्ष में प्रसिद्ध हुए, जिनका चलाया हुआ विक्रम संवत् आज भी प्रचलित है। यह संवत् ईसा पूर्व 57 में प्रारंभ हुआ। इनके ही भाई प्रसिद्ध भर्तृहरि हुए जिन्होंने प्रसिद्ध शतक त्रयी – श्रृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक लिखे तथा जो बाद में गोरख सम्प्रदाय में दीक्षित होकर विरक्त साधु हो गये थे। विक्रमादित्य के बाद रूद्रदामन, यशोधर्मन तथा हर्ष विक्रमादित्य इस क्षेत्र के अधिपति हुए। कुछ समय के लिये राष्ट्रकूटों के आधिपत्य में रहकर अवन्ती 10वीं शताब्दी में परमार राजाओं के आधिपत्य में आ गई जिसके प्रथम राजा मुंज थे तथा उनके भतीजे राजा भोज ने उज्जैन से हटा कर धार को अपनी राजधानी बनाया। भोज पराक्रमी राजा होने के साथ-साथ बहुत बड़े विद्वान्, कवि और विद्वानों के प्रशंसक थे। उन्होंने ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं के विद्वानों को अपने यहाँ एकत्र किया और विभिन्न विषयों के अनेक प्रामाणिक ग्रन्थों की रचना उनके काल में हुई। उसके वंशज नरवर्मा ने महाकाल मंदिर का उद्धार किया और भगवान महाकाल के प्रति एक स्तोत्र की भी रचना की, जिसे आज भी वहाँ देखा जा सकता है।
13वीं सदी के प्रारंभ में उज्जयिनी को बुरे दिन देखने पड़े, जब सन् 1234 में सुल्तान अल्तमस ने इस पर आक्रमण किया तथा महाकाल मंदिर को नष्ट कर दिया। मुगल सम्राट अकबर तथा जहांगीर भी उज्जैन आये थे तथा कालियादेह महल में ठहरे थे, जिसे राजा महमूद खां ने सन् 1437 में बनवाया था। 18वीं सदी में मुगलों के अधीन सवाई जयसिंह उज्जैन के प्रांतीय शासक बने। वे ज्योतिर्विज्ञान के बड़े अनुरागी थे और उन्होंने उज्जैन, जयपुर, मथुरा तथा दिल्ली में चार वेधशालाएँ बनवाईं। उज्जैन की वेधशाला से आज भी वेध लिये जा सकते हैं। सन् 1732 में मुगल तथा मराठाओं की एक संधि के अन्तर्गत यह क्षेत्र मराठाओं के अधीन आ गया। इसके साथ ही उज्जैन का पुनर्निमाण प्रारंभ हुआ। राणौजी सिंधिया के प्रधानमंत्री बाबा रामचन्द्र सुकतनकर ने महाकाल मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और अनेक मंदिर बनवाये। क्षिप्रा तट का प्रसिद्ध रामघाट संभवतः उन्हीं के समय में बना और ऐसा प्रतीत होता है कि तभी से सिंहस्थ की परम्परा प्रारंभ हुई। सन् 1807 तक उज्जैन ही सिंधिया राजवंश की राजधानी रही, इसके बाद उसे ग्वालियर ले जाया गया। पूरे ब्रिटिश शासनकाल में उज्जैन ग्वालियर रियासत का एक संभागीय मुख्यालय बना रहा।
वर्तमान उज्जैन पश्चिम रेल्वे के भोपाल-रतलाम सेक्शन पर अक्षांश 230′- 11’ तथा रेखांश 750-46’ पर मालवा के पठार पर अवस्थित है। यहाँ की जलवायु समशीतोष्ण है तथा रेल और सड़क मार्ग से यह शहर अनेक प्रमुख स्थानों से जुड़ा हुआ है। शहर शिक्षा और संस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र है, जहाँ पर 2 विश्वविद्यालय तथा अनेक शैक्षणिक संस्थाएँ हैं। मध्यप्रदेश शासन का यह संभागीय मुख्यालय है। ज्योतिर्लिंग महाकाल मंदिर और पवित्र क्षिप्रा नदी के अतिरिक्त यहाँ पर गोपाल मंदिर, हरसिद्धि पीठ, चिंतामण गणेश, मंगलनाथ, महर्षि सांदीपनि पीठ, महर्षि सांदीपनि वेद विद्या प्रतिष्ठान, महाप्रभु वल्लभाचार्य की बैठक, कालभैरव तथा कालिदास अकादमी जैसे संस्थान तथा मंदिर हैं। इसे मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है। लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और धार्मिक-ऐतिहासिक अध्येता हैं।