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मैं हलधर हूँ………
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मैं हलधर हूँ मसि से गहरा नेह नहीं है ,
श्रमसीकर से लिखता हूँ मैं गीत सुहाने ।
उदर भरा हो मेरा या अशना में जी लूँ ,
मैं तो सतत लगा हूँ जग की क्षुधा मिटाने ।।
चाहे दिनकर तपे गगन में घटा घिरे या ,
मैं श्रमसीकर से सींचूँगा अपनी फसलें ।
वसुधा है माँ माथे मलता नित रजकण मैं ,
खेत मुदित हो कनक-रजत के दाने उगलें ।।
वृषभ मेरे मीत सुरों की धार उन्हीं से ,
जो भरते संगीत मधुर मेरे गीतों में ।
मेरे दु:ख में उनको भी रोते है देखा ,
और मुदित भी सदा हुये मेरी जीतों में ।।
बंजर कैसे छोडूँगा मैं वसुंधरा को ,
ऋण हैं भू माता के मुझको कई चुकाने ।
मैं हलधर हूँ मसि से गहरा नेह नहीं है ,
श्रमसीकर से लिखता हूँ मैं गीत सुहाने ।।
कभी धूप में बैठ छाछ से रोटी खाई ,
मिली छाँव तो बल भर डाला फिर से तन में ।
जिद है मुझको हरित चीर पहनाऊँ भू को ,
बसी हुई है छुटपन से हरियाली मन में ।।
तोड़ा पाहन और मृत्तिका रची सदा ही ,
मैंने अनथक शूलों को पथ से दूर किया है ।
कभी गगन ने बाधाओं से मुझे डराया ,
नित बाधा के मद को मैंने चूर किया है ।।
सूखी कोई ताल पुरानी, नई बनाई ,
मेरा जीवन लगा धरा की प्यास बुझाने ।
मैं हलधर हूँ मसि से गहरा नेह नहीं है ,
श्रमसीकर से लिखता हूँ मैं गीत सुहाने ।।
मेरे नयनों में भर जाती है तरुणाई ,
जब-जब देखूँ मैं खेतों की फूली सरसों ।
देती सौरभ माटी से नित चंदन सी ,
खेला हूँ मैं इन खेतों में देखो वर्षों ।।
देती है यह वसुधा मुझको नूतन जीवन ,
एक बीज के बदले देती अगणित दाने ।
इसके उपकारों से सुर भी भोजन पाते ,
जो सपूत हो वह माँ की ममता पहिचाने ।।
चलते जाना है अविरल ही मुझको पथ में ,
एक नहीं मुझको हैं अगणित गगन झुकाने ।
मैं हलधर हूँ मसि से गहरा नेह नहीं है ,
श्रमसीकर से लिखता हूँ मैं गीत सुहाने ।।
उदर भरा हो मेरा या अशना में जी लूँ ,
मैं तो सतत लगा हूँ जग की क्षुधा मिटाने ।
मैं हलधर हूँ मसि से गहरा नेह नहीं है ,
श्रमसीकर से लिखता हूँ मैं गीत सुहाने ।।
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©️डा० विद्यासागर कापड़ी
सर्वाधिकार सुरक्षित
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