मनुष्यता या पशुता–एम.एस.रावत

 

प्रदीप कुमार

 

श्रीनगर गढ़वाल। एक दिन स्कूल की छूटी के बाद कुछ लड़के लड़कियां स्कूल से घर की तरफ जा रहे थे,रास्ते में एक आदमी पड़ा था,दोपहर में बच्चे कूदते फांदते घर की ओर जारहे थे,किसी ने उस आदमी की ओर ध्यान नहीं दिया,एक लड़के ने देखा एक आदमी जमीन पर लेटा करहा रहा है
उसकी तरफ किसीने ध्यान नही दिया,सभी अपनी ढूंढे चले जा रहे हैं,एक बच्चे ने देखा,वह उस दुःखी आदमी के पास गया,बीमार आदमी से पूछा बाबा क्या बात है,ओ आदमी बोला बेटा तबीयत खराब है क्या पानी मिल सकता है,लड़के के पास नही था,लड़का दौड़ कर गया और सामने के घर से पानी मांग कर ले आया और पानी पिला कर फिर बर्तन देने गया और आगे अपने घर को निकल गया,सामको वह लड़का घर आया,उसने सुना उसके पिता से कोई सज्जन बता रहे थे कि स्कूल के सामने दोपहर के बाद एक आदमी मर गया,लड़का पिता के पास गया और उसने कहा बाबूजी। वह जो आदमी सड़क पर पड़ा था,पिता ने कहा हां,उनको तो मैने सामने के मकान से मांग कर पानी पिलाया था,पिता इस बात पर बहुत नाराज हुऐ,बोले तुम मेरे सामने से चले जाओ!तुमने एक बीमार आदमी को मरने के लिऐ छोड़ दिया अस्पताल क्यों नही पहुंचाया,तुम मनुष्य नही पशु हो,डरते डरते लड़के ने जवाब दिया,मैं अकेला था,अस्पताल कैसे ले जाता।
पिता ने डांटते हुए कहा-बहाना मत बनाओ, तुम्ही लेजा सकते थे तो अपने अध्यापक से या जिस घर से पानी ले कर आए थे,तुरंत उनको बताते या घर आकर मुझे बताते मैं कोई प्रबंध करता,अब मैं आम जनता पर वा मासूम बच्चों के ऊपर छोड़ता कि तुम लोग क्या करते,किसी रोगी या घायल मनुष्य व पशुको घायल अवस्था छोड़ कर चले जाते हो या यथा शक्ति सहायता करते हो या छोड़ कर चले जाते हो?
फिर तुम्हे पता लगेगा की तुम क्या हो।

कहानी से क्या सीख मिलती है बताए ?