प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल-मनुष्य का जीवन तभी सुखी होता है, जब वह संतुष्ट हो लेकिन संतुष्टि का अर्थ अकर्मणता नही है,कर्तव्य तो पूरी निष्ठा के साथ अवश्य ही करना चाहिए,ऊंचे उद्देश्यों और आदर्शो को लेकर कर सतत प्रयास करते रहना चाहिए, दूसरों की सहायता ,प्रोपकार, कष्ट निवारण, और आध्यात्मिक उत्थान के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए,बस आवश्यकता केवल इसबात की है कि जो उपलब्धियां हो उनके प्रति संतुष्टि का भाव बनता रहे,कहावत है, असंतोषी सदा दु:खी , अब असंतुष्टि का जब ऐसा पल है,तब भला कोन है!जो इसका वरन करेगा? कुछ लोग भाग्य बादी होते हैं,मानते हैं कि भाग्य ही सब कुछ है,अत: प्रयास और प्रयत्न व्यर्थ है,ऐसा सोचना ठीक नही क्योंकि कर्मसे ही प्रारब्ध बनता है,यह प्रारब्ध ही भाग्य कहलाता है,अत: पूरे तौर से भाग्याबादी बनकर स्टकर्मो और सत्प्रयासों से विरक्त हो जाना भाग्यको बिगाड़ना है,
भाग्य में परिवर्तन संभव है,भावी को मेट सकता है,संभव है,पीआर यह सभी व्यक्ति सहज में कर सके ऐसा संभव नही ईश्वर कृपा से ही संभव है,”भाविहुं मेट स्नकही त्रिपुरारी” इसके लिए अनुष्ठान ,यज्ञ,जप,तप,पूजा,पाठ,दान,धर्म और नानाप्रकार के उपाय बनाए गए हैं, मणि और मंत्र, औषधि की भी विद्यान बताया गया है, अत: दुर्भाग्य के निवारण और सौभाग्य के सर्जन और वृद्धि के लिए उक्त उपायों के अविलंबन की अवश्यकता होती है, सुख-शांति लुप्त होती जा रही है,हृदय में कई तरह की आग धधकती रहती है,इसका मुख्य कारण है,निमित को स्वीकार करना , यदि नियति को स्वीकार कर दुर्भाग्य के निवारण के शास्त्रोचित उपाय किए जय तो व्यक्ति को पग-पग पर संतुष्टि प्राप्त हो सकती है, शान्ति का लाभ हो सकता है,शांति जीवन की चरम उपलब्धि है,जिसका आधार संतुष्टि है,भाग्य सुधार के शास्त्र संभत उपाय के लिऐ वे भाग्यवर्धन जैसे दिखे पर अंतिम परिणाम असंतुस्तिदायक हो सकती है, कुछ लोग तो भाग्य चमकाने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं,पर क्या यह ठीक है।
संतुष्टि एक येसी मानसिक स्थति है,जिससे मन प्रशन रहता है,मस्तिष्क का बोझ उतर जाता है,बुद्धि स्थिर हो जाती है,और सही दिशा में चलती है,सोच स्न्यत हो जाती है,भोजन से रस-रक्त आदि सही प्रकार से पूरी मात्रा में बनने लगते हैं,शरीर निरोग हो जाता है,हृदय की गति नार्मल बनी रहती है,क्रोध,प्रतिशोध,ईर्ष्या, हिंसा और लोभके भाव व्यथित नही कर पाते तनाव,डिप्रेशन,स्नायुबिकारो.पर आक्रमण नही हो पाता, संतुष्ट मनुष्यका हृदय आलादित रहता है,उसके अंदर एक अजीब प्रकार की खुशी और मस्ती छाई रहती है,अत: इसे व्यक्ति का पुरुस्वार्थ ही कहा जाता है, वह अपने अंदर संतुष्ट मन: स्थिति उपजा सके ,उसे स्थाई रूप में बसा सके और उसे पुष्ट पल्लवित करता रहे।