उत्तराखंड के पहाड़ी गांव की झलक हमारे गांव की राम लीला (चालीस साल पहले) तीसरी किश्त,गतांक से आगे–कविराज नीरज नैथानी

प्रदीप कुमार

श्रीनगर गढ़वाल आज आपको पहाड़ी गांव के सामाजिक जीवन पर रामलीला आलेख पहाड़ी गांव की झलक पर केंद्रित एक आलेख इस समय तक आस पास के गांवों में भी खबर फैल चुकी होती कि पहले नवरात्रों से फलाने गांव में राम लीला शुरु हो चुकी है।
नतीजतन इस राम लीला को देखने केवल हमारे ही गांव के नहीं वरन दूर दराज के गांव वाले भी देखने आते।
दूसरे गांव से आने वाले लोग लकड़ी के डण्डों पर कपड़ा लपेटकर मशाल जलाकर या छिल्लों (पहाड़ी वृक्ष प्रजाति की ज्ज्वलनशील पतली डण्डियां) की रोशनी में लम्बा रास्ता तय कर पंहुचते।
हमारे गांव वाले तो अंधेरा ढलते ही मंच के ठीक‌ सामने टाट बोरी बिछाकर अपनी जगह घेर लेते।हर दिन गांव के ही किसी खास आदमी से रिब्बन कटवाकर उद्घाटन करवाया जाता।उद्घाटनकर्ता अपनी सामर्थ्य अनुसार रामलीला कमेटी को दान अवश्य भेंट करता जिसकी घोषणा मंच से विशेष रूप से की जाती।
पास के ही दूसरे खेत में खणकू काका की चाय की टेम्परेरी दुकान खुलती।मंच के पीछे से कमेटी वालों की पर्ची आती तो केतली में वहां चाय पंहुचानी होती।
रामलीला के समापन पर सारी पर्चियां गिनकर खणकू काका अपना हिसाब मांगता तो कमेटी हमेशा हील हुज्जत करती।
हांलाकि अन्य गांव के आने वाले दर्शकों से उधार का कोई सवाल नहीं था वे नकद भुगतान कर चाय पाकीजा,फैंन लेते।
खणकू काका इस मौके पर मूंगफली भी रखता।कुछ लोग केवल कहने भर को रामलीला देखने आते।दरअसल मूंगफली ठूंगते हुए गपशप मारना उनका रोज का शगल था।
वैसे देखा जाय तो हमारे गांव की रामलीला केवल लोक संस्कृति की संवाहक ही नहीं थी वरन् यह अनेक उद्देश्यों की प्राप्ति का माध्यम भी बनती। आज से चालीस साल हमारे गांव में रामलीला मंचन के अतिरिक्त श्रव्य दृश्य मनोरंजन का कोई साधन उपलब्ध नहीं था(कुछ गांवों में तो अभी तक भी नहीं है)। इसलिए सारे इलाके में राम लीला को लेकर गजब का उत्साह भरा रहता। राम लीला के मंचन के समय दो दृश्यों के बीच के अंतराल को भरने के लिए गांव का कोई कलाकार आकर बांसुरी वादन करता।
कोई लोक गीत सुनाता तो कोई चुटकले सुनाकर दर्शकों को लोटपोट करता।कोई युवा आकर किसी हिंदी फिल्मी गीत को सुनाता तो कोई शेरो शायरी करता।
किसी के लिए आयोजन स्थली मिलन केंद्र होती तो कोई नैनमटक्का बाजी करता तो कोई किसी से खुन्नस उतारने के लिए लड़ाई की तैयारी के साथ आता।
राज तिलक के बाद राम लीला पूर्ण होने के दूसरे या तीसरे दिन भक्त प्रह्लाद या दानी हरीश चंद्र नाटक का मंचन भी किया जाता।
कुल मिलाकर हमारे गांव की रामलीला का यह मंच स्थानीय उभरते कलाकारों को अवसर प्रदान कर उनके अंदर निहित प्रतिभा को प्रस्फुटन का माध्यम भी बनता।
हांलाकि इसमें बड़ी भूमिका पाने के लिए पहले दो तीन साल तक वानर या राक्षस सेना का साधारण सिपाही,फिर पदोन्नत होकर राम या रावण दरबार का मुख्य दरबारी,फिर जटायू मारीच की भूमिका का अनुभव आवश्यक माना जाता था। मेघनाद,कुम्भकरण,अहिरावण,दशरथ,जनक आदि के पात्रों का चयन वरिष्ठता के आधार पर ही होता।जबकि बाली,सुग्रीव,अंगद,खरदूषण के पात्रों का चयन अनुकम्पा के आधार पर ही होता था।
रावण का अभिनय तो मैं ही करूंगा पर अक्सर दो वरिष्ठ पात्र अड़ जाते फिर मान मनौव्वल कर एक को यह कहकर शांत किया जाता कि अगले साल तुम्हें ही भूमिका मिलेगी इस बार इस भाई को कर लेने दो।
हां,हनुमान जी का पाठ करने वाले नीमानंद जी जब तक राम लीला चलती व्रत रखते,लहसुन प्याज नहीं खाते व भक्तिपूर्वक निष्ठावान सदस्य के रूप में सहयोग देते।
शेष सहायक भूमिका वाले पात्र तो प्राय: जिस दिन उनकी भूमिका होती उसी समय उन्हें अवगत कराया जाता कि आज तुम्हें फलाना रोल करना है।
न्यूनतम संसाधनों में लोकनाट्य परम्परा को कैसे जिवित बनाए रखा जाय यह हमारे गांव की रामलीला से सीखा जा सकता था।
ना ही कोई संगीत पारंगत और ना ही कोई नाटक विशेषज्ञ फिर भी स्थानीय स्तर के कुशल प्रबंधन का नायाब उदाहरण कही जा सकती है हमारे गांव की रामलीला।