प्रदीप कुमार
श्रीनगर गढ़वाल। हमारे गांव में कभी एक पंधेरा जहां प्राकृतिक श्राेत से बहने वाली पानी की अविरल धारा बहती है अब उसका अस्तित्व लगभग समाप्ति की ओर है। मैं जिस जमाने के अपने गांव के पंधेरे के विषय में बात कर रहा हूं उस समय हमारे यहां कोई ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था।
इस लिए वाटर मैनेजमेंट का डिप्लोमा या बी०टैक० करने का तो कोई सवाल ही नहीं होता।लेकिन साहब गजब का जल प्रबंधन करते थे हमारे बड़े बुजुर्ग।
पंधेरे की जलधार जहां जमीन पर गिरती थी वहां पर एक बड़ा पत्थर रखा हुआ था।जलधार की तड़ तड़ झेलते उस पत्थर की सतह पर गढ्ढा पड़ गया था।
उसकी गोलाकार परिधि में पानी भरने की गागर इस तरह फिट बैठती की उसे नीचे रखकर छोड़ दो तो वह इधर उधर नहीं ढुलकती थी।
उस स्थान पर एक आयताकार चौरी बना दी गयी थी। पास में ही एक बड़ी समतल पृष्ठ की शिला थी जिस पर महिलाएं कपड़े धोती थीं।
जलधारा के पानी के निकासी के लिए चौरी से एक नालीदार रास्ता बना हुआ था जिससे कि अतिरिक्त पानी बहते हुए समीप की पक्की हौज में गिरता था।
वह हौज इतनी लम्बी चौड़ी थी कि उसमें एक साथ अनेक मवेशी पानी पिया करते थे।जब वह हौजी भी पानी से पूरी भर जाती थी तो अतिरिक्त पानी की निकासी के लिए उसके ऊपरी भाग पर छेद बने हुए थे। जहां से पानी बहकर पास के गधेरे(पानी की स्थानीय निर्झरणी) में जाकर मिलता था।
पंधेरे के आस पास जामुन व आम के बड़े बड़े पेड़ थे।हरे पत्तों से लकदक वाली शाखाओं के उन घने वृक्षों के नीचे सदा एक सुगंधित मलय सी बहती रहती थी। ग्रीष्म व वर्षा ऋतु के संधि काल में जब वे वृक्ष फलों से भरे होते तो सारा वातावरण असीम मादकता से पूर्ण लगता। संध्याकालीन बेला में जब पशुचारक जंगल से पशुओं को लौटाकर ला रहे होते तो वे जलधारा में हाथ मुंह धोकर अपनी थकान मिटाते, प्यास बुझाते उसी समय पशु भी हौजी में मुंह डालकर स्वयं को तृप्त कर रहे होते।
बच्चे टपके फलों को एकत्र कर रहे होते या डाली हिलाकर अथवा पत्थरों से मारकर तोड़ते व हल्ला मचाते हुए दौड़कर लपकते। पंधेरे का यह जीवंत दृश्य प्रकृति के महत्वपूर्ण अवयवों जल,वृक्ष,पशु ,मानव आदि के समन्वय का उत्कृष्ट उदाहरण चित्रांकित करता।
कुल मिलाकर उस समय पंधेरे का वैभवशाली परिवेश अपने समृद्ध साम्राज्य के चरम बिंदु पर पहुंचा हुआ प्रतीत होता।
नीरज नैथानी